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कर देना आदि में भी कर्म नहीं होते परन्तु इस अकर्म दशा में भी भय या राग भाव अकर्म को भी कर्म बना देता है। जबकि अनासक्त वृत्ति और कर्त्तव्य की दृष्टि से जो कर्म किया जाता है, वह राग-द्वेष के अभाव के कारण अकर्म बन जाता है। उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि कर्म और अकर्म का निर्णय केवल शरीरिक क्रियाशीलता या निष्क्रियता से नहीं होता। कर्ता के भावों के अनुसार ही कर्मों का स्वरूप बनता है। इस रहस्य को सम्यक्पेण जानने वाला ही गीताकार की दृष्टि से मनुष्यों से बुद्धिमान योगी है। सभी विवेच्य आचार दर्शनों में कर्म अकर्म विचार में वासना, इच्छा, या कर्त्तत्व भाव ही प्रमुख तत्व माना गया है। यदि कर्म के सम्पादन में वासना, इच्छा या कर्त्तव्य बुद्धि का भाव नहीं तो वह कर्म बन्धन कारक नहीं होता है। दूसरे शब्दों में बन्धन की दृष्टि से वह कर्म अकर्म बन जाता है, वह क्रिया अक्रिया हो जाती है। वस्तुतः कर्म अकर्म विचार में क्रिया प्रमुख तत्व नहीं होती है प्रमुख तत्व हैं कर्ता का चेतन पक्ष । यदि चेतना जाग्रत है, अप्रमत्त है, विशुद्ध है, वासनाशून्य है, यथार्थ दृष्टि सम्पन्न है तो फिर क्रिया का बाह्य स्वरूप अधिक मूल्य नहीं रख सकता। पूज्यपाद कहते हैं जो आत्मतत्व में स्थिर है वह बोलते हुए भी नहीं बोलता है, चलते हुए भी नहीं चलता है,देखते हुए भी नहीं देखता है।" आचार्य अमृतचंद्र सूरी का कथन है – रागादि (भावों) से मुक्त होकर आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात) हो जावे तो वह हिंसा नहीं है अर्थात् हिंसा और अहिंसा, पाप
और पुण्य बाह्य परिणामों पर निर्भर नहीं होते हैं वरन् उसमें कर्मों की चितवृत्ति ही प्रमुख है। उतराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है-भावों से विरक्त जीव शोक रहित हो जाता है वह कमल पत्र की तरह संसार में रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। गीताकार भी इसी विचार दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहता है जिसने कर्म फलासक्ति का त्याग कर दिया है, जो वासना शून्य होने के कारण सदैव ही आकांक्षा रहित है और आत्मतत्व में स्थिर होने के कारण आलम्बन रहित है वह क्रियाओं को करते हुए भी कुछ नहीं करता है। गीता अकर्म जैन दर्शन के संवर और निर्जरा से भी तुलनीय है। जिस प्रकार जैन दर्शन में संवर एवं निर्जरा के हेतु किया जाने वाला समस्त क्रिया व्यापार मोक्ष का हेतु होने से अकर्म ही माना गया है, उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा से रहित होकर ईश्वरीय आदेश के पालनार्थ जो नियत कर्म किया जाता है वह अकर्म ही माना गया है। दोनों में जो विचार साम्य है वह एक तुलनात्मक अध्येता के लिए काफी महत्वपूर्ण है। गीता और जैनागम आचारांग में मिलने वाला निम्न विचारसाम्य ही विशेष रूपेण द्रष्टव्य है। आचारांग सूत्र में कहा गया है ‘अग्रकर्म और मूल कर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म करे । ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी वह साधक निष्कर्म ही कहा जाता है। निष्कर्मता के जीवन जैन धर्मदर्शन
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