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________________ 2. भाव लोकहित - लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर है, जहाँ लोक-हित के जो साधन हैं, वे ज्ञानात्मक या चैत्तनिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ ओर स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है। मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ की भावनाएँ इस स्तर को अभिव्यक्त करती हैं। 3. पारमार्थिक लोक-हित - यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, जहाँ स्व-हित और पर-हित में कोई संघर्ष नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। यहाँ पर लोक-हित का रूप होता है -यथार्थ जीवन दृष्टि के सम्बन्ध में मार्ग-दर्शन। विषमता समस्या और समता समाधान जैनागम-साहित्य में उपलब्ध निर्देश न केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं अपितु वर्तमान-युग की सामाजिक-धार्मिक समस्याओं के समाधान में भी वे पूर्णतः सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्राचीन-युग हो या वर्तमान युग, मानव-समाज की समस्याएँ सभी युगों में लगभग समान रही हैं और उनका समाधान भी समान रहा है। वस्तुतः विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान है। मानव-समाज की सभी समस्याएँ विषमताजनित हैं। विषमताओं का निराकरण समता के द्वारा ही सम्भव है। इसीलिए जैन-आगम आचारांग में धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि “समियाये धम्मे आरिये हि पवेइए" - 1, 8, 3 अर्थात् आर्यजन समता को ही धर्म कहते है। समता ही धर्म है और विषमता अधर्म हैं क्योंकि विषमता सामाजिक सन्तुलन को भंग करती है। विषमता चाहे वह सामाजिक जीवन में हो या वैयक्तिक जीवन, में, वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए दुःख और पीड़ा का कारण बन सकती है। सामाजिक-जीवन के बाधक तत्त्व राग-द्वेष यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस विषमता का मूल क्या है? जैनागाम उत्तराध्ययन में विषमता का मूल राग और द्वेष के तत्त्वों को माना गया है। राग और द्वेष की प्रवृत्तियाँ ही सामाजिक-विषमता और सामाजिक-संघर्षों का कारण बनती है। सामाजिक सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग और द्वेष की भावनाएँ ही काम करती हैं। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े हैं, तब तक इन आपसी सम्बन्धों में विषमता स्वाभविक रूप से उपस्थित रहती है। जब राग का तत्त्व द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता है, तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है। राग के कारण “मेरा" यह ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म-संप्रदाय और मेरा राष्ट्र - ये विचार विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप भाईजैन धर्मदर्शन 355
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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