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________________ 1 भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद का जन्म होता है । हमारे सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं । ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठने नहीं देते हैं। ये ही आज की सामाजिक विषमता के मूल कारण हैं । 1 सामाजिक संघर्षों का मूल "स्व" की संकुचित सीमा है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है । सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं। अपनी रागात्मक वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन किये बिना हमारे अपेक्षित नैतिक एवं सामाजिक जीवन का विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हो या परिवारिक एवं राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वार्थ वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से नैतिकता एवं सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है । उसके होते हुए नैतिक एवं सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी लिखते हैं- “परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता -- का नियमन नहीं करता, वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व अन्तर्राष्ट्रीय अनैतिकता का नियामक नहीं होता ।" मुझे लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है । जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्य-निष्ठ और प्रामाणिक नहीं हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता, तब तक सामाजिक असद्भाव और सामाजिक संघर्षों का निराकरण सम्भव ही नहीं होता । रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार राष्ट्र ही क्यों न हों, सच्चे अर्थों में नैतिकता नहीं हो सकती । सच्चा सामाजिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन- दर्शन इसी वीतराग - जीवन दृष्टि को ही अपनी साधना का आधार बनाता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सामाजिक-जीवन के लिए एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है । यही एक ऐसा आधार है जिस पर सामाजिक नैतिकता को खड़ा किया जा सकता है और सामाजिक-जीवन वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। सरागता कभी भी सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण नहीं कर सकती है । रागात्मकता के आधार पर खड़ा सामाजिक जीवन अस्थायी ही होगा। इस प्रकार जैन- दर्शन ने वीतरागत को जीवन का आदर्श स्वीकार करके वस्तुतः एक सुदृढ़ सामाजिक-जीवन के लिए एक स्थायी आधार प्रस्तुत किया है । 356 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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