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की सम्भावना भी तभी तक है जबकि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति निहित है। रागादि भाव या सिर्फ स्व-हित की वृत्ति से किया गया परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। जिस प्रकार शासन के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाज-कल्याण अधिकारी वस्तुतः लोक-हित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोक-हित का कार्य करता है। उसी प्रकार राग से प्रेरित होकर लोक-हित करने वाला भी सच्चे अर्थ में लोक-हित का कर्ता नहीं है, उसके लोक-हित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति के हेतु ही होते हैं। ऐसा नाम से परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्म-हित और सच्चा लोक-हित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है, लेकिन उस अवस्था में न तो कोई अपना रहता है और न पराया। क्योंकि जहाँ राग है, वहीं मेरा है और जहाँ मेरा वहीं पराया भी है। राग की शून्यता होने पर और पराये का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी राग शून्यता की भूमि पर स्थिर होकर किया जाने वाला आत्म-हित भी लोक-हित होता है और लोक-हित आत्म-हित होता है। दोनों में कोई संघर्ष नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में तो सर्वत्र आत्म-दृष्टि होती है, जिसमें न कोई अपना है, न कोई पराया है। स्वार्थ-परार्थ जैसी समस्या वहाँ रहती ही नहीं है।
जैन-विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ-परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन-विचारकों ने परार्थ या लोक-हित के तीन स्तर माने हैं - 1. द्रव्य लोक-हित 2. भाव लोक-हित और 3. पारमार्थिक लोक-हित।
___1. द्रव्य लोक-हित - यह लोक-हित का भौतिक स्तर है। भौतिक उत्पादनों- जैसे भोजन, वस्त्र आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोक-सेवा करना द्रव्य लोक-हित है। यह दान और सेवा का क्षेत्र है। पुण्य के नव प्रकारों में आहार-दान, वस्त्र-दान, औषधि-दान आदि का उल्लेख यह बताता है कि जैन-दर्शन दान और सेवा के आदर्श को स्वीकार करता है। जैन-समाज के द्वारा आज भी जन-सेवा और प्राणी - सेवा के जो अनेक कार्य किये जा रहे हैं, इसके प्रतीक हैं। फिर भी यह एक ऐसा स्तर है, जहाँ हितों का संघर्ष होता है। एक का हित दूसरे के अहित का कारण बन सकता है। अतः द्रव्य लोक-हित एकान्त रूप से आचरणीय भी नहीं कहा जा सकता। यह सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्व-हित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो स्व-हित और पर-हित में उचित समन्वय बनाये रखना, इतना ही अपेक्षित है।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान