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इन सबके अतिरिक्त जैन - साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है । संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं के भी ऊपर है । विशेष परिस्थितियों में तो संघ के कल्याणार्थ वैयक्तिक साधना का परित्याग भी आवश्यक माना गया है । जैन - साहित्य में आचार्य भद्रबाहु एवं कालक की कथाएँ इसके उदाहरण हैं ।
स्थानांग सूत्र में जिन दस धर्मों का निर्देश दिया गया है, उनमें संघ-धर्म, गण-धर्म, राष्ट्र-धर्म, नगर-धर्म, ग्राम-धर्म और कुल-धर्म की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन- दृष्टि न केवल आत्म-हित या वैयक्तिक - विकास तक ही सीमित है वरन् उसमें लोक-हित या लोक-कल्याण का अजस्त्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है ।"
यद्यपि जैन-दर्शन लोक-हित, लोक-मंगल की बात कहता है, लेकिन उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए। क्योंकि वे हमें जगत से ही मिली हैं, ये वस्तुतः संसार की हैं, हमारी नहीं । सांसारिक उपलब्धियाँ संसार के लिए है, अतः उनका लोक-हित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए लेकिन उसे यह स्वीकार नहीं है कि आध्यात्मिक - विकास या वैयक्तिक नैतिकता को लोक-हित के नाम पर कुंठित किया जाये। ऐसा लोक-हित जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक - कुंठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है, लोक-हित और आत्म-हित के सन्दर्भ में उसका स्वर्णिम सूत्र है - आत्म-हित करो और यथाशक्य लोक-हित भी करो । लेकिन जहाँ आत्म-हित और लोक - हित में द्वन्द्व हो और आत्म-हित के कुंठन पर ही लोक-हित फलित होता हो, तो वहाँ आत्म-कल्याण श्रेष्ठ है ।
आत्म-हित स्वार्थ ही नहीं है
यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन-धर्म का यह आत्म- हित स्वार्थवाद नहीं है। आत्म- काम वस्तुतः निष्काम होता है क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होती है अतः उसका स्वार्थ भी नहीं होता । आत्मार्थी कोई भौतिक उपलब्धि नहीं चाहता। वह तो उसका विसर्जन करता है । स्वार्थी तो वह है, जो यह चाहता है सभी लोग उसकी भौतिक उपलब्धियों के लिए कार्य करें | स्वार्थी और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना में राग और द्वेष की वृत्तियां काम करती हैं जबकि आत्म-कल्याण का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों को क्षीण करने होता है । यथार्थ आत्म- हित में राग-द्वेष का अभाव है । स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष जैन धर्मदर्शन
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