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________________ अधिकारी है ? समाज जीवन की प्राथमिक आवश्यकता हैं व्यक्ति अपने और पराये के भाव से तथा अपने व्यक्तिगत क्षूद्र स्वार्थों से ऊपर उठे, चूँकि जैन-दर्शन हमें इन्हीं तत्त्वों की शिक्षा देता है । अतः वह सच्चे अर्थों में सामाजिक है, आसामाजिक नहीं है। जैन-दर्शन निवृत्तिपरक होना सामाजिक विमुखता का सूचक नहीं है । अशुभ से निवृत्ति ही शुभ में प्रवृत्ति का साधन बन सकती है। वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक प्रवृत्ति का आधार है । तीर्थंकर नमस्कार सूत्र (नमोत्थुण) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोक-प्रदीप, अभय के दाता आदि विशेषणों का उपयोग हुआ हैं, वे भी जैन- दृष्टि की लोक-मंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं । तीर्थकरों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्रणियों के अनुग्रह के लिए होता है न कि पूजा या सत्कार के लिए।' तीर्थंकर की मंगलमय वाक्धारा का प्रस्फुटन तो लोक की पीड़ा की अनुभूति में ही रहा हुआ है। 'समच्चि लोए खेयन्ने हि पवेइए ” में यह सुस्पष्ट रूप से कहा गया है कि समस्त लोक की पीड़ा का अनुभव करके ही तीर्थंकर की जन-कल्याणी वाणी प्रस्फुटित होती है । यदि ऐसा माना जाये कि जैन-साधना केवल आत्म-हित, आत्म-कल्याण की बात कहती है, तो फिर तीर्थंकर के द्वारा प्रवर्तन के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही-नहीं रहता है। मानना पड़ेगा कि जैन-साधना का आदर्श मात्र आत्म-कल्याण ही नहीं, वरन् लोक-कल्याण भी है । जैन- दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित की श्रेष्ठता को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन- विचारणा के अनुसार साधना की सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित सभी जीवनमुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से, यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन-विचारकों ने उनकी आत्म-हितकारिणी और लोक-हितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया है। एक सामान्य केवली (जीवनमुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ तो समान ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर को लोकहित की दृष्टि के कारण सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है । जीवनमुक्तावस्था को प्राप्त व्यक्तियों के उनकी लोकोपकारिता के आधार पर दो वर्ग होते हैं - तीर्थंकर और सामान्य केवली । साधारण रूप में क्रमशः विश्व-कल्याण, वर्ग- कल्याण ओर वैयक्तिक-कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं, जिनमें विश्वकल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्रकार बौद्ध-विचारणा में बोधिसत्त्व और अर्हत् के आदर्शों में भिन्नता है, उसी प्रकार जैन-साधना में तीर्थंकर और सामान्य केवली के आदर्शों में तारतम्य है 1 352 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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