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के ये महत्त्वपूर्ण उद्गार है। वैदिक-ऋषियों का ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्' के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था, जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते। सहयोपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था। प्रत्येक अवसर पर शान्ति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक विकास का प्रयास करते थे। वे कहते थे -
सह नाववतु सहनौभुनक्तु सह वीर्यं करवावहै, तेजस्विनावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै।
- तैत्तिरीय आरण्यक 8, 2 हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें।
औपनिषदिक ऋषि ‘एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा' सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा। औपनिषदिक-चिन्तन में वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेद-निष्ठा का सर्वोत्कृष्ट तात्त्विक आधार प्रस्तुत किया गया। भारतीय-दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक एकत्व की चेतना एवं सामाजिक एवं सामाजिक समता का आधार बनी है। ईशवास्योपनिषिद् का ऋषि कहता है -
यस्तु सर्वाणि भूतानि, आत्मन्य वानुपश्यति।
सर्व-भूतेषु चात्मनं, ततो न विजुगुप्सते।।6 ||---- जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को भी सभी प्राणियों में देखता है, वह अपनी इस एकात्मा की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है। सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मता की अनुभूति है और जब एकात्मता की दृष्टि का विकास हो जाता है, तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जहाँ एक ओर औपनिषदिक ऋषियों ने एकात्मता की चेतना को जाग्रत कर सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर ईश्वरीय सम्पदा अर्थात सामूहिक सम्पदा का विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है -
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम् ।।। ।। इस जग में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वरीय है, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वैयक्तिक कहा जा सके। इस प्रकार श्लोक के पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के जैन धर्मदर्शन
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