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है। अतः ऐसी साधना अनिवार्य रूप से असामाजिक तो नहीं हो सकती है। मनुष्य जब तक मनुष्य है, वह वीतराग नहीं हुआ है, तो स्वभावतः ही एक सामाजिक प्राणी है। पुनः कोई भी धर्म सामाजिक चेतना से विमुख होकर जीवित नहीं रह सकता। यह सत्य है कि निवर्तक धर्म वैयक्तिक साधना पर बल देता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें सामाजिक-चेतना का अभाव है और सामाजिक-जीवन की समस्याओं के समाधान के सम्बन्ध में उसमें कोई दिशा-निर्देशक सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होते। यद्यपि यह माना जा सकता है कि निवर्तक धर्मों में सामाजिक समस्याओ के समाधान के सन्दर्भ में जो दृष्टिकोण उपलब्ध होता है, वह विधायक न होकर, निषेधात्मक है। किन्तु इससे उसकी मूल्यवता में कोई अन्तर नहीं आता है। वस्तुतः मुख्यतः जैन-धर्म और सामान्यतया सभी निवर्तक धर्मों की सामाजिक उपयोगिता (Social utility) का सम्यक्-मूल्यांकन करने के लिए हमें उस समग्र इतिहास को देखना होगा, जिसमें भारतीय-चिन्तन में सामाजिक-चेतना का विकास
हुआ है।
साथ ही, हमें भारतीय-चिन्तन में सामाजिक-चेतना के विकास की क्रमिक प्रक्रिया को भी समझना होगा तभी हम जैन और बौद्ध जैसे निवर्तक धर्मों का सामाजिक समस्याओं के समाधान के सन्दर्भ में क्या योगदान रहा, इसका सम्यक्मूल्यांकन कर सकेंगे। प्राचीन भारतीय-चिन्तन में सामाजिक-चेतना के विकास के तीन स्तर मिलते हैं- वैदिक-युग, उपनिषद-युग और श्रमण-युग।
सर्वप्रथम वैदिक युग में जन-मानस में सामाजिक चेतना को जागृत करने का प्रयत्न किया गया। वैदिक ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण सामाजिक-जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है- 'सं गच्छध्वं सं वो मनांसि जानताम्।' ऋग्वेद 10, 191, 2 । तुम मिलकर चलों, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें अर्थात् तुम्हारे जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो। आगे पुनः वह कहता है -
समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सह चित्तमेषाम् । समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा व। सुसहासति ।। वही 10, 191, 3-4.
आप सबके निर्णय समान हों, आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन भी समान हो और आपकी चित-वृत्ति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक-रूप हो ताकि आप मिल-जुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें। सम्भवतः सामाजिक जीवन एवं समाज-निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक-युग के भारतीय-चिन्तक
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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