________________
सामाजिक समस्याओं के समाधान में जैनधर्म का योगदान
यह सत्य है कि जैन-धर्म मुख्यतया निवृत्ति प्रधान धर्म है, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि उसमें सामाजिक समस्याओं के समाधान परिलक्षित नहीं होते हैं, एक भ्रान्त धारणा ही होगी । यद्यपि न केवल पाश्चात्य अपितु अनेक भारतीय विचारक भी इस बात का समर्थन करते हैं कि निवर्तक धर्म मूलतः व्यक्ति परक ही है, समाज परक नहीं । जैन विद्या के मर्मज्ञ विद्वान स्व. पं. सुखलालजी का कथन है- 'प्रवर्तक धर्म समाजगामी और निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है । निवर्तकधर्म समस्त समाज के कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता। उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है, और वह है - जिस तरह भी हो आत्मसाक्षात्कार का प्रयत्न करे ओर उसमें रूकावट डालने वाली इच्छा का नाश करे । किन्तु मेरी अपनी दृष्टि से व्यक्तिकता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय 'स्व' के अनिवार्य अंग है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि 'मनुष्य नहीं है, यदि वह सामाजिक नहीं, किन्तु यदि वह मात्र सामाजिक ही है, तो वह पशु से अधिक नहीं है । मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों का अतिक्रमण करने में है। वस्तुतः मनुष्य एक ही साथ सामाजिक और वैयक्तिक दोनों ही है क्योंकि मानव व्यक्तित्व में राग-द्वेष के तत्त्व अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं । राग का तत्त्व उसमें सामाजिकता का विकास करता है, तो द्वेष का तत्त्व उसमें वैयक्तिकता या स्व- हितवादी दृष्टि का विकास करता है । जब राग का सीमा क्षेत्र संकुचित होता है और द्वेष का अधिक विकास करता है । जब राग का सीमा क्षेत्र संकुचित होता है और द्वेष का अधिक विस्तरित होता है, तो व्यक्ति को स्वार्थी कहा जाता है, उसमें वैयक्तिकता प्रमुख होती है । किन्तु जब राग का सीमा क्षेत्र विस्तरित होता है और द्वेष का क्षेत्र कम होता है, तब व्यक्ति परोपकारी या सामाजिक कहा
है । किन्तु जब वह वीतराग और बीतद्वेष होता है, तब वह अतिसामाजिक होता है । किन्तु अपने और पराये भाव का यह अतिक्रमण असामाजिक नहीं है । वीतरागता की साधना में अनिवार्य रूप से 'स्व' की संकुचित सीमा को तोड़ना होता जैन धर्मदर्शन
347