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उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियाँ हैं उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों का) का भी भाग है। अतः उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो। संग्रह या लालच मत करो क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है। सम्भवतः सामाजिकता की चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं हो सकता था। गाँधीजी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में कहा था कि 'यदि भारतीय-संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाये, किन्तु यह श्लोक भी बचा रहे, तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है।' 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः' में समग्र सामाजिक-चेतना केन्द्रित दिखाई देती है।
__ इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ वैदिक-युग में सामाजिक-चेतना के विकास के लिए सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित किया गया, वहाँ
औपनिषदिक-युग में सामाजिक-चेतना को सुदृढ़ बनाने हेतु दार्शनिक आधार प्रस्तुत किये गये।
उसे बौद्धिक आधार प्रदान किया गया और एकत्व की अनुभूति को अधिक व्यापक बनाया गया। किन्तु सामाजिक-चेतना ऐसा जीवन है, जो यथार्थ की भूमि पर खड़ा होता है जब तक सामाजिक-चेतना पुष्ट करने हेतु समान अनुभूति में बाधक बनने वाले तत्त्वों को तथा सामाजिक संरचना को विखण्डित करने वाले तत्त्वों को दूर नहीं किया जाता, तब तक एक सफल सामाजिक जीवन की कल्पना यथार्थ की धरती पर नहीं उतर सकती। अतः जैन एवं बौद्ध-परम्परओं में सामाजिक शुद्धि का प्रयत्न किया तथा उन बातों से जिनसे सामाजिक-जीवन में कटुता और टकराहट उत्पन्न होती थी, उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया। चाहे उनके द्वारा प्रस्तुत आदेशों और उपदेशों की भाषा निषेधात्मक हो, किन्तु उन्होंने उन मूलभूत दोषों के परिमार्जन का प्रयत्न किया है, जो सामाजिक जीवन को विषाक्त और कटुतापूर्ण बनाते थे। वस्तुतः उनका योगगदान उस चिकित्सक के समान है, जो बीमारी के मूलभूत कारणों का विश्लेषण कर उनके निराकरण के उपाय बताता है और इस प्रकार वे सामाजिक जीवन की बुराइयों का निराकरण कर एक स्वस्थ सामाजिक जीवन का आधार प्रस्तुत करते हैं। क्या निवृत्ति सामाजिक विमुखता की सूचक है?
वस्तुतः जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म को निवर्तक-परम्परा का पोषक मानकर इस आधार पर यह मान लेना कि उनमें सामाजिक जीवन की समस्याओं के समाधान की उपेक्षा की गई है, सबसे बड़ी भ्रांति होगी। चाहे वे इतना अवश्य मानते हों कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किन्तु 350
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान