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________________ इस प्रकार अपनी मूल्य-विवेचना में प्राच्य और पाश्चात्य विचारक अन्त में एक ही निष्कर्ष पर आ जाते हैं और वह निष्कर्ष यह है कि आध्यात्मिक मूल्य या आत्मपूर्णता ही सर्वोच्च मूल्य है एवं वही नैतिक जीवन का साध्य है। यद्यपि भारतीय दर्शन में सापेक्ष दृष्टि से मूल्य सम्बन्धी सभी विचार स्वीकार कर लिये गये हैं, फिर भी उसकी दृष्टि में आत्मपूर्णता, वीतरागावस्था या समभाव की उपलब्धि ही उसका एकमात्र परम मूल्य है, किन्तु उसके परममूल्य होने का अर्थ एक सापेक्षिक क्रम व्यवस्था में सर्वोच्च होना है। किसी मूल्य की सर्वोच्चता भी अन्यमूल्य सापेक्ष ही होती है, निरपेक्ष नहीं। अतः मूल्य, मूल्य-विश्व और मूल्यबोध सभी सापेक्ष है। संदर्भ - 1. देखिए-कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, अध्याय 17, पृ. 274-284 2. मरणसमाधि, 603. 3. उत्तराध्ययन, 13/16 4. प्राकृत सूक्तिसरोज, 11/1l. 5. प्राकृत सूक्ति-सरोज, 11/7. 6. देखिए-कल्पसूत्र, 7. योगशास्त्र, 1/52. 8. दशवैकालिकनियुक्ति, 262-264. 9. दीघनिकाय, 3/8/2. 10. वही, 3/8/2. 11. वही, 3/8/2. 12. दीघनिकाय, 3/3/4. 13. सुत्तनिपात, 26/29. 14. मज्झिमनिकाय, 2/32/4. 15. उदान, जात्यन्धवर्ग, 8. 16. मज्झिमनिकाय, 1/22/4. 17. गीता, 18/34. 18. वही, 16/21. 19. वही, 16/66. 20. वही, 16/10, 12, 15. 21. वही, 7/11. 22. वही, 3/13. 23. मनुस्मृति, 4/176 24. महाभारत, अनुशासनपर्व, 3/18-19. जैन धर्मदर्शन 317
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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