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________________ दैशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिसमें कार्य अकार्य की कोटि में और अकार्य कार्य की कोटि में आ जाता है, किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था नहीं अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है, जिसे हम आपवादिक अवस्था के रूप में जानते हैं। किन्तु आपवादिक स्थिति में होने वाला मूल्य-परिवर्तन सामान्य स्थिति में होने वाले मूल्य-परिवर्तन से भिन्न स्वरूप का होता है। उसे वस्तुतः मूल्य-परिवर्तन कहना भी कठिन है। ___ यह भी सही है कि कभी कर्म दैशिक और कालिक परिस्थितियों में इतना असाधारण और कुछ स्थाई परिवर्तन हो जाता है कि जिसके कारण मूल्यांतरण आवश्यक हो जाता है। किन्तु इसमें जिन मूल्यों का परिवर्तन होता है, वे मुख्यतः साधन मूल्य होते हैं। क्योंकि साधन मूल्य आचरण से सम्बन्धित होते हैं और आचरण परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं हो सकता, अतः उसमें परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ परिवर्तन होता रहता है। दूसरे, व्यक्ति को समाज में जीवन जीना होता है और समाज परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं होता है, अतः सामाजिक नैतिकता अपरिवर्तनीय नहीं कही जा सकती। उसमें देशकालगत परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है, किन्तु उसकी यह परिवर्तनशीलता देशकाल-सापेक्ष होती है, इसमें मुख्यतः मात्र मूल्यों का संक्रमण या पदक्रम परिवर्तन होता है। अपवाद की स्थिति इन सामान्य परिवर्तनों से भिन्न प्रकार की होती है, उसमें कभी-कभी मूल्य का विरोधी तत्व ही मूल्यवान प्रतीत होने लगता है। क्या आपद्धर्म नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का सूचक है? किन्तु क्या अपवाद की स्वीकृति उसे नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता को ही निरस्त कर देती है? यह सत्य है कि किसी परिस्थिति विशेष में सामान्य रूप में स्वीकृत मूल्य के विरोधी मूल्य की सिद्धि नैतिक हो जाती है। महाभारत में कहा गया स एव धर्मः सोऽधर्मों देश काले प्रतिष्ठितः। आदानमनृतं हिंसा धर्मोह्यावस्थिक स्मृतः।। अर्थात् कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि जब हिंसा, झूठ तथा चौर्य कर्म ही धर्म हो जाते हैं। प्राचीनतम जैन आगम आचारांग में भी कहा गया है - जे आसवाने परिस्सवा, जे परिस्सवाने आसवा।।' जो आसूव (पाप) के स्थान होते हैं वे संवर (धर्म) के स्थान हो जाते हैं और जो धर्म के स्थान होते हैं वे ही आसूव (पाप) के स्थान हो जाते हैं, किन्तु यह परिवर्तन साधन मूल्यों का ही होता है। आपद्धर्म में कोई एक साध्य मूल्य इतना प्रधान हो जाता है कि उसकी सिद्धि के लिए किसी दूसरे मूल्य का निषेध आवश्यक जैन धर्मदर्शन 293
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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