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मूल्य- विश्व के ही कुछ मूल्य अपनी अनुषंगिकता के कारण नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं और कभी-कभी तो नैतिक जगत के प्रमुख मूल्य या नियामक मूल्य बन जाते हैं । 'अर्थ' और 'काम' ऐसे ही मूल्य हैं जो स्वरूपतः नैतिक मूल्य नहीं है फिर भी नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित होकर उसका नियमन और क्रम-निर्धारण भी करते हैं । यह सम्भव है कि जो एक परिस्थिति में प्रधान मूल्य हो, वह दूसरी परिस्थिति में प्रधान मूल्य न हो, किन्तु इससे उनकी मूल्यवत्ता समाप्त नहीं हो जाती । पारिस्थितिक या सापेक्ष मूल्य दूसरे मूल्यों के निषेधक नहीं होते हैं । दो परस्पर विरोधी मूल्य भी अपनी परिस्थिति में अपनी मूल्यवत्ता को बनाये रख सकते हैं। वे दोनों मूल्य अपने-अपने दृष्टिकोण से अपनी-अपनी मूल्यवत्ता रखते हैं । एक दृष्टि से जो मूल्य लगता है वह दूसरी दृष्टि से निर्मूल्य हो सकता है, किन्तु अपनी दृष्टि या अपेक्षा से तो वह मूल्यवान बना रहता है । लेकिन यह बात पारिस्थितिक मूल्यों के समबन्ध में ही अधिक सत्य लगती है ।
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मूल्य - परिवर्तन के आधार
. वस्तुतः मूल्यों के तारतम्य या उच्चावच क्रम में यह परिवर्तन देशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता है । महाभारत में कहा गया है - अन्ये कृत युगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरे परे । अन्ये कलियुगे नृणां युग ह्रासानुरूपतः ।। *
युग के हास के अनुरूप सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के धर्म अलग-अलग होते हैं। किन्तु युगानुरूप मूल्य परिवर्तन का अर्थ यह नहीं है कि पूर्व मूल्य निर्मूल्य है, अपितु इतना ही है कि वर्तमान परिस्थिति में उनकी वह मूल्यवत्ता या प्रधानता नहीं रह गई है जो कि उस परिस्थिति में थी । अतः परिस्थितियों के परिवर्तन से होने वाला मूल्य-परिवर्तन से होने वाला मूल्य - परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा ।
यह सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना है वह परिस्थिति निरपेक्ष नहीं है । दैशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन हमारे मूल्यबोध को प्रभावित करते हैं, किन्तु इसमें मात्र यही होता है कि कोई मूल्य प्रधान दिखाई देता है और दूसरे परिपार्श्व में चले जाते हैं । दैशिक और कालिक परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि जो कर्म एक देश और काल में विहित हो, वही दूसरे देश और काल में अविहित हो जावे । अष्टक प्रकरण में कहा गया है -
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उत्पद्यते ही साऽवस्था देशकालभयान् प्रति । यस्यामकार्य कायं स्यात् कर्म कार्यं च वर्जयेत । ।
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान