SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 हो जाता है । जैसे अन्याय के प्रतिकार के लिए हिंसा अथवा शरीर रक्षण या दूसरों के जीवन रक्षण के लिए चोरी आवश्यक हो जाती है । मान लीजिये देश में अकाल की स्थिति के कारण हजारों लोग मृत्यु के ग्रास बन रहे हों, दूसरी ओर कुछ लोगों ने अधिक मुनाफा कमाने के लिए अनाज की गोदामों में बन्द कर रखा हो। ऐसी स्थिति में जनजीवन की रक्षा के लिए हिंसा या चोरी भी मूल्य बन जाती है और अहिंसा या आचौर्य के मूल्यों का निषेध आवश्यक लगता है, किन्तु यह निषेध परिस्थिति विशेष तक सीमित रहता है । उस परिस्थिति के सामान्य होने पर पुनः धर्म, धर्म बन जाता है और अधर्म अधर्म बन जाता है। वस्तुतः आपवादिक अवस्था में कोई एक मूल्य इतना प्रधान प्रतीत होता है कि उसकी उपलब्धि के लिए हम अन्य मूल्यों की उपेक्षा कर देते हैं अथवा कभी-कभी सामान्य रूप से स्वीकृत उसी मूल्य के विरोधी तथ्य को हम उसका साधन बना लेते हैं । उदाहरण के लिए जब हमें जीवन-रक्षण ही एकमात्र मूल्य प्रतीत होता है तो उस अवस्था में हम हिंसा, असत्य भाषण, चोरी आदि को अनैतिक नहीं मानते हैं । इस प्रकार अपवाद में एक मूल्य साध्य स्थान पर चला जाता है और अपने साधनों को मूल्यवत्ता प्रदान करना प्रतीत होता है, किन्तु यह मूल्य भ्रम ही है । उस समय भी चोरी या हिंसा मूल्य नहीं बन जाते हैं क्योंकि उनका स्वतः कोई मूल्य नहीं है, वे तो उस साध्य की मूल्यवत्ता के कारण मूल्य के रूप में प्रतीत या आभासित होते हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अहिंसा के स्थान पर हिंसा या सत्य के स्थान पर असत्य नैतिक मूल्य बन जाते हैं। साधु पुरुष की रक्षा के लिए दुष्टजन की हिंसा की जा सकती है, किन्तु इससे हिंसा मूल्य नहीं बन जाती है। किसी प्रत्यय की नैतिक मूल्यवत्ता उसके किसी परिस्थिति विशेष में आचरित होने या नहीं होने से अप्रभावित भी रह सकती है । प्रथम तो यह कि अपवाद की मूल्यवत्ता केवल उस परिस्थिति विशेष में ही होती है, उसके आधार पर जीवन का कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता। साथ ही जब व्यक्ति आपद्धर्मं का आचरण करता है तब भी उसकी दृष्टि में मूल नैतिक नियम की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी रहती है । यह तो परिस्थितिगत या व्यक्तिगत विवशता है, जिसके कारण उसे वह आचरण करना पड़ रहा है। दूसरे सार्वभौम नियम में और अपवाद में अन्तर है । अपवाद की यदि कोई मूल्यवत्ता है, तो वह केवल विशिष्ट परिस्थिति में ही रहती है, जबकि सामान्य नियम की मूल्यवत्ता सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सर्वजनीन होती है। अतः आपद्धर्म की स्वीकृति मूल्य परिवर्तन की सूचक नहीं है । वह सामान्यतया किसी मूल्य को न तो निर्मूल्य करती है और न मूल्य-संस्थान में उसे अपने स्थान से पदच्युत ही करती है, अतः वह मूल्यांतरण भी नहीं है। 294 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy