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क्रियापद के प्रयोग में 'सः'का गौणरूप से निर्देश तो रहा ही। क्रियापद को सदैव व्यक्त या अव्यक्त रूप में कर्तापद की अपेक्षा तो होती ही है। अतः आख्यातद अन्य पदों से कथंचित सापेक्ष होकर भी वाक्यार्थ का अवबोध करता है - यह मानना ही समुचित है और इस रूप में यह मत जैन दार्शनिकों को भी स्वीकार्य है। (2) पदों का संघात वाक्य है।
बौद्ध दार्शनिकों का यह कहना है कि पदों का संघात ही वाक्य है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मात्र पद-समूह संघात नहीं है। मात्र पदों को एकत्र रखने से वाक्य नहीं बनता है। वाक्य बनने के लिए 'कुछ और' चाहिए और यह 'कुछ और' पदों के एक विशेष प्रकार के एकीकरण से प्रकट होता है। यह पदों के अर्थ से अधिक एवं बाहरी तत्त्व होता है। पदों के समवेत होने पर आये हुए इस 'अर्थाधिक्य' को ही संघातवादी वाक्यार्थ मानते हैं। इस प्रकार संघातवाद में वाक्य को पदसमूह के रूप में और वाक्यार्थ को पदों के अर्थसमूह के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यहाँ समूह या संघात ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है क्योंकि वह पदों के अर्थ में कुछ नयी बात को भी जोड़ता है। इस मत के अनुसार पदों के अलग-अलग होने पर नहीं होता है। उदाहरण के रूप में 'घोड़ा' 'घास' 'खाता है' - ये तीन पद अलग-अलग रूप में जिस अर्थ के सूचक हैं, इनका संघात या संद्धति अर्थात् घोड़ा घास खाता है, उससे भिन्न अर्थ का सूचक है। इस प्रकार संघातवादी पदों के संघात को ही वाक्ययार्थ के अवबोध का मुख्य आधार मानते हैं। ---
संघातवाद की इस मान्यता की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखते हैं कि पदों का यह संघात या संघटन देशकृत है या कालकृत। यदि पदों के संघात को देशकृत अथवा कालकृत माना जाये तो यह विकल्प युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वाक्य के सुनने में क्रमशः उत्पन्न एवं ध्वंस होने वाले पदों का एक ही देश या एक ही काल में अवस्थित होकर संघात बनाना सम्भव नहीं है। पुनः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वाक्यरूपता को प्राप्त पद वाक्य से भिन्न है या अभिन्न है। वह भिन्न नहीं हो सकता, क्योंकि भिन्न रहने पर वह वाक्यांश नहीं रह जायगा और वाक्य के अंश के रूप में उसकी प्रतीति नहीं होगी। पुनः जिस प्रकार एक वर्ण का दूसरे वर्ण से संघात नहीं होता उसी प्रकार एक पद का भी दूसरे पद के साथ संघात नहीं होता हैं, पुनः यदि संघात अभिन्न रूप में है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है तो वह सर्वथा अभिन्न है कथंचित् अभिन्न है। यदि सर्वथा अभिन्न माना जायेगा तो संघात संघाती के स्वरूप वाला हो जायेगा, दूसरे शब्दों में पद ही वाक्यरूप हो जायेगा और ऐसी स्थिति में संघात का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। यदि यह संघात कथांचित् अभिन्य और कथंचित् भिन्न है तो ऐसी
जैन ज्ञानदर्शन
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