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________________ इस मत की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है या सापेक्ष होकर वाक्य है ? यदि प्रथम विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि आख्यातपद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य हैं तो यह मान्यता दो दृष्टिीकोणों से युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि प्रथम तो अन्य पदों से निपेक्ष होने पर आख्यातपद 'पद' ही रहेगा, 'वाक्य' के स्वरूप को प्राप्त होगा। दूसरे, यदि अन्य पदों से निरपेक्ष आख्यातपद अर्थात् क्रियापद को वाक्य माना जाये तो फिर आख्यातपद का ही अभाव होगा क्योंकि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद वह है, जो उद्देश्य और विधेयपद के अथवा अपने और उद्देश्यपद के पारस्परिक सम्बन्ध को सूचित करता है । उद्देश्य या विधेयपद से निरपेक्ष होकर तो वह अपना अर्थात् आख्यातपद का स्वरूप ही खो चुकेगा; क्योंकि निरपेक्ष होने से वह न तो उद्देश्यपद और विधेयपद के सम्बन्ध को और न उद्देश्यपद अपने सम्बन्ध को सूचित करेगा । पुनः यदि आख्यातपद अन्य पदों से सापेक्ष होकर वाक्य है, तो वह कथंचित् सापेक्ष होकर वाक्य है या पूर्णतया सापेक्ष होकर वाक्य । इसमें भी प्रथम मत के अनुसार यदि यह माना जाये कि वह कथंचित् सापेक्ष होकर वाक्य है, तो इससे तो जैन मत का ही समर्थन होगा । पुनः यदि दूसरे विकल्प के अनुसार यह माना जाये कि वह पूर्ण सापेक्ष होकर वाक्य है, तो पूर्ण सापेक्षता के कारण उसमें वाक्यत्व का ही अभाव होगा और वाक्यत्व का अभाव होने से उसके प्रकृत अर्थ अर्थात् आख्यात स्वभाव का ही अभाव होगा, वह अर्द्धवाक्यवत् होगा; क्योंकि पूर्ण सापेक्ष होने के कारण उसे अपना अर्थबोध कराने के लिये अन्य किसी की अपेक्षा बनी रहेगी। अन्य की अपेक्षा रहने से वह वाक्य के स्वरूप को प्राप्त नहीं होगा; क्योंकि वाक्य तो सापेक्ष पदों की निरपेक्ष संद्वति अर्थात् इकाई है । अतः जैनों के अनुसार कथंचित् सापेक्ष और कथंचित् निरपेक्ष होकर ही आख्यातपद वाक्य हो सकता है। इसका तात्पर्य है कि वह अन्य पदों से मिलकर ही वाक्य स्वरूप को प्राप्त होता है । आख्यातपद वाक्य का चाहे एक महत्त्वपूर्ण अंग हो, किन्तु वह अकेला वाक्य नहीं है । यह सत्य है कि अनेक स्थितियों में केवल क्रियापद के उच्चारण से सन्दर्भ के आधार पर वाक्यार्थ का बोध हो जाता है, किन्तु वहाँ भी गौणरूप से अन्य पदों की उपस्थिति तो है। ‘खाओ' कहने से न केवल खाने की क्रिया की सूचना मिलती है, अपितु खानेवाले व्यक्ति और खाद्य वस्तु का भी अव्यक्त रूप से निर्देश होता है; क्योंकि बिना खाने वाले और खाद्य वस्तु से उसका कोई मतलब नहीं है । हिन्दी भाषा में 'लीजिए' 'पाइए' आदि ऐसे आख्यातपद हैं, जो एक पद होकर भी वाक्यार्थ का बोध कराते हैं; किन्तु इनमें अन्य पदों का गौणरूप से संकेत तो हो ही जाता है । संस्कृत भाषा में 'गच्छामि' इस क्रियापद के प्रयोग में 'अहं' और 'गच्छति' इस जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 262
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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