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स्थिति में जैन मत का ही समर्थन होगा क्योंकि जैनाचार्यों के अनुसार भी पद वाक्य से कंथचित् भिन्न और कंथचित् अभिन्न होते हैं । इस रूप में तो यह मत जैनों को भी मान्य हो जायेगा ।
(3) संघात में अनुस्यूत सामान्यतत्त्व (जाति) ही वाक्य है
कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य मात्र पदों का संघात नहीं है । वाक्य के समस्त पदों के संघात से होने वाली एक सामान्य प्रतीति ही वाक्य है 1 इन विचारकों के अनुसार पदों के संघात से होने वाली एक सामान्य प्रतीति ही वाक्य है । इन विचारकों के अनुसार पदों के संघात से एक सामान्य तत्त्व, जिसे वे 'जाति' कहते हैं, उत्पन्न होता है और यह संघात में अनुस्यूत सामान्य तत्त्व ही वाक्य है । वाक्य में पदों की पृथक्-पृथक् सत्ता नहीं रहती है, अपितु वे सब मिलकर एक सामान्य तत्त्व का अर्थबोध देते हैं और यही वाक्यार्थ होता है। इस मत के अनुसार यद्यपि पदों के संघात से ही वाक्य बनता है, फिर भी यह वाक्य से पृथक् होकर उन पदों के अर्थबोध सामर्थ्य को स्वीकार नहीं करता है । यद्यपि वाक्य का प्रत्येक पद अपनी सत्ता रखता है, तथापि वाक्यार्थ एक अलग इकाई है और पदों का कोई अर्थ हो सकता है तो वाक्य में रहकर ही हो सकता है; जैसे शरीर का कोई अंग अपनी क्रियाशीलता शरीर में रहकर ही बनाये रखता है, स्वतन्त्र होकर नहीं । पद वाक्य के अंग के रूप में ही अपना अर्थ पाते हैं ।
जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि यदि जाति या सामान्यतत्व का तात्पर्य परस्पर सापेक्ष पदों का निरपेक्ष समूह है, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि वह दृष्टिकोण तो स्वयं जैनों को भी स्वीकार्य है । किन्तु यदि जाति को पदों से भिन्न माना जायेगा तो ऐसी स्थिति में इस मत में भी वे सभी दोष उपस्थित हो जायेंगे जो संघातवाद में दिखाये गये हैं क्योंकि जिस प्रकार पदसंघात पदों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होकर ही अर्थबोध प्रदान करता है, उसी प्रकार यह जाति या सामान्य तत्त्व भी पदों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न रहकर ही वाक्यार्थ का अवबोध करा सकता है, क्योंकि सामान्य तत्त्व या जाति को व्यक्ति ( अंश) से न तो पूर्णतः भिन्न माना जा सकता है और न पूर्णतः अभिन्न ही। पद भी वाक्य से न तो सर्वथा भिन्न होते हैं और न सर्वथा अभिन्न ही । उनकी सापेक्षिक भिन्नाभिन्ता ही वाक्यार्थ की बोधक बनती है । ( 4 ) वाक्य अखण्ड इकाई है
वैयाकरणिक वाक्य की अखण्ड सत्ता मानते हैं । उनके अनुसार वाक्य अपने आप में एक इकाई है और वाक्य से पृथक पद का कोई अस्तित्त्व ही नहीं है जिस प्रकार पद के बनाने वाले वर्णों में पद के अर्थ को खोजना व्यर्थ है उसी प्रकार वाक्य को बनानेवाले पदों में वाक्यार्थ का खोजना व्यर्थ है । वस्तुतः एकत्व में ही जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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