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________________ (2) दूसरा औपनिषदिक दृष्टिकोण, जिसमें सत्-असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे- “तदेजति तन्नेजति” “अणोरणीयान् महतो महीयान" सदसद्वदेण्यम्" आदि। यहां दोनों पक्षों की स्वीकृति है। यहां सत्ता को दो विरूद्ध धर्मों से युक्त मानकर उसे अस्ति (है) और नास्ति (नहीं है) रूप भाषा से अवाच्य कहा गया है। (3) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य या अनिवर्चनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है। जैसे- “यतो वाचो निवर्तन्ते", यद्वाचाभ्युदित्य, नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यः आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्कोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की अवधारणा में भी बहुत इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (4) चौथा दृष्टिकोण जैन-न्याय में सापेक्षित अवक्तव्यता या सापेक्षिता अनिर्वनीयता के रूप में विकसित हुआ है जिसमें सत्ता को अंशतः वाच्य और समग्रतः अवाच्य कहा गया है। सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं - (1) सत् वे असत् दोनों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। (2) सत्, असत् सदततीनों रूपों से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। (3) सत्, असत् सत्-असत् (उभय) और न सत्- न असत् (अनुभय) चारों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। (4) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य या वाच्य मानना। अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभाव में तो आ सकता है, किन्तु कहा नहीं जा सकता। क्योंकि वह अनुभवगम्य है , शब्दगम्य नहीं। (5) सत् और असत् दोनों को युगपद् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना। (6) वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है। अतः शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना। यहां यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन-परंपरा में इस अवक्व्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यतया जैन परपरा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं। उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत् दोनों का युगपद् विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है, किन्तु यदि हम प्राचीन जैन-आगमों को देखें तो अवक्व्यता का यह अर्थ अंतिम नहीं जैन ज्ञानदर्शन 257
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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