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कहा जा सकता है। “आचारांगसूत्र" में आत्मा के स्वरूप को वचनागोचर कहा गया है । उस अपद का कोई पद नहीं है, अर्थात् ऐसा कोई पद नहीं है, जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं बनाया जा सकता पुनः वस्तुतत्त्व को अनन्धर्मात्मकता और शब्द - संख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व की अवक्तव्य माना गया है आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्यभाव का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव किया जा सकता है । अतः यह मान लेना उचित नहीं है कि जैन परंपरा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है 1
इस प्रकार जैनदर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और छठे अर्थ मान्य रहे हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अवक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य या वाच्य तो नहीं, किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य या अवाच्य भी नहीं है । यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवाच्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई रास्ता ही नहीं रह जायेगा । अतः जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिवर्चनीयता या अवाच्यता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय या वाच्य भी है। सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय । क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धांन्त के अनुकूल है । इस प्रकार अवक्व्यता के पूर्व निर्दिष्टि छह अर्थों में से पहले तीन को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है ।
जैनदर्शन में सप्तभंगी की योजना में एक भंग अवक्व्य भी है । सप्तभंगी में दो प्रकार के भंग हैं- एक मौलिक और दूसरे संयोगिक । मौलिक भंग तीन हैंस्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्य शेष चार भंग संयोंगिक हैं, जो इन तीन मौलिक भंगों के संयोग से बने हुए हैं । प्रस्तुत निंबंध का उद्देश्य जैन दर्शन में अवक्तव्य या अवाच्य के अर्थ को स्पष्ट करना था । हमने देखा कि सामान्यताया जैन दार्शनिकों की अवधारणा यह है कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्-असत् नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरूद्ध धर्मों का युगपद् रूप से अर्थात् एक ही साथ प्रपादन करना भाषायी सीमाओं के कारण अशक्य है, क्योंकि ऐसा कोई भी क्रियापद नहीं है जो एक ही कथन में एक साथ विधान या निषेध दोनों कर सके । अतः परस्पर विरूद्ध और भावात्मक एवं अभावात्मक धर्मों की एक ही कथन में अभिव्यक्ति की भाषायी असमर्थता को स्पष्ट करने के लिए ही अवक्तव्य भंग की योजना की गई । किन्तु जैन परंपरा में अवक्तव्य का यही एक मात्र नहीं रहा है । जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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