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क्योंकि उसे अवक्तव्य या वाच्य कहना भी तो एक प्रकार का वचन या वाक् व्यवहार ही है, यहां हमारा वाच्य यह है कि वह अवाच्य है। अतः हमें व्यवहार के स्तर पर उतर कर सत्ता की वक्तव्यता या वाच्यता को स्वीकार करना होगा। क्योंकि इसी पर श्रुतज्ञान एवं आगमों की प्रामाणिकता स्वीकार की जा सकती है।
जैन-आचार्यों ने दूसरों के द्वारा किए गए संकेतों के आधार पर होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा है। संक्षेप में समस्त आनुविक ज्ञान, मतिज्ञान और सांकेतिक ज्ञान श्रुतज्ञान हैं, श्रुतज्ञान की परिभाषा है- जिस ज्ञान में संकेत-स्मरण है और जो संकेतों के नियत अर्थ को समझने में समर्थ है, वही श्रुतज्ञान है (विशेषावश्यकभाष्य 120 एवं 121)। सामान्यतया श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है, किन्तु हस्तसंकेत आदि अन्य साधनों से होने वाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान कहलाता है, क्योंकि श्रुतज्ञान के दो भेद प्रसिद्ध हैं अक्षर-श्रुत और अनक्षर-श्रुत। अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं- संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर। वर्ण का ध्वनि संकेत अर्थात् शब्द-ध्वनि व्यंजनाक्षर है। वर्ण का आकारिक संकेत अर्थात् लिपि संकेत संज्ञाक्षर है। लिपि संकेत और शब्द-ध्वनि संकेत के द्वारा अर्थ समझने की सामर्थ्य लब्ध्यक्षर है। शब्द या भाषा के बिना मात्र वस्तु संकेत, अंग संकेत अथवा ध्वनि संकेत द्वारा जो ज्ञान होता है वह अनक्षर श्रुत है। इसमें हस्त आदि शरीर के संकेतों, झण्डी आदि वस्तु संकेतों तथा खांसना आदि ध्वनि संकेतों के द्वारा अपने भावों एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया जाता है। संक्षेप में वे सभी सांकेतिक सूचनाएं जो किसी व्यक्ति के ज्ञान, भाव या विचार को सार्थक रूप से प्रकट कर देती हैं और जिसके द्वारा पर (दूसरा) व्यक्ति उनके लक्षित अर्थ का ग्रहण कर देती हैं, श्रुतज्ञान है। चूंकि श्रुतज्ञान प्रमाण है, अतः मानना होगा कि शब्द संकेत या भाषा अपने विषय या अर्थ का प्रामाणिक ज्ञान देने में समर्थ है। दूसरे शब्दों में सत् या वस्तु वाच्य भी है। इस प्रकार जैन-दर्शन में सत्ता या वस्तु तत्त्व को अंशतः वाच्य या वक्तव्य और समग्रतः अवाच्य या अवक्तव्य कहा गया है। यहां यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि इस अवक्तव्यता का भी क्या अर्थ है?
डॉ. पद्यराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है - (1) पहला वेदकालीन निषधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व-कारण की खोज करते
हुए ऋषि इस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता है यहां दोनों पक्षों का निषेध है। यहां सत्ता की अस्ति (सत्) और नास्ति (असत्) रूप से वाच्यता का निषेध किया गया है।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान