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________________ का सम्पूर्ण एवं यथार्थ चित्र नहीं कहा जा सकता। यद्यपि शब्द में श्रोता की चेतना में शब्द और अर्थ के पूर्व संयोजन के आधार पर अपने अर्थ (विषय) का चित्र उपस्थित करने की सामर्थ्य तो होती है, किन्तु यह सामर्थ्य भी श्रोता सापेक्ष है। सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य? इस प्रकार भाषा या शब्द-संकेत अपने विषयों के अपने अर्थों के संकेतक तो अवश्य हैं, किन्तु उनकी अपनी सीमाएं भी हैं। इसीलिए सत्ता या वस्तु-तत्त्व किसी सीमा तक वाच्य होते हुए भी अवाच्य बना रहता है। वस्तुतः जब जीवन की सामान्य अनुभूतियों और भावनाओं को शब्दों एवं भाषा के द्वारा तरह से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है तो फिर सत्ता के निर्वचन का प्रश्न तो और भी जटिल हो जाता है। भारतीय चिन्तन में प्रारंभ से लेकर आज तक सत्ता की वाच्यता का यह प्रश्न मानव-मस्तिष्क को झकझोरता रहा है। वस्तुतः सत्ता की अवाच्यता का कारण शब्द भण्डार तथा शब्द शक्ति की सीमितता और भाषा का अस्ति और नास्ति की सीमाओं से घिरा होना है। इसीलिए प्राचीनकाल से ही सत्ता की अवाच्यता का स्वर मुखर होता रहा है। __ तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि यतो वाचों निवर्तन्ते (2/4)- वाणी वहां से लौट आती है, उसे वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। इसी बात को केनोपनिषद् में "यद्वाचावीयुदितम्" (1/4) के रूप में कहा गया है। कठोपनिषद् में "नेव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यम्" कह कर यह बताया गया है कि परम सत्ता का ग्रहण वाणी और मन के द्वारा संभव नहीं है। माण्डूक्योपनिषद् में सत्ता को अदृष्ट, अव्यवहार, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अवाच्य कहा गया है। जैन-आगम आचारांग का भी कथन है कि “वह (सत्ता) ध्वनयात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहां वाणी मूक हो जाती है तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, वह बुद्धि का विषय नहीं है। किसी भी उपमा के द्वारा उसे समझाया नहीं जा सकता है अर्थात् उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती है। वह अनुपम, अरूपी सत्ता है। जिस के द्वारा उसका निरूपण किया जा सके" (आचारांग 1/5/6)। उपर्युक्त सभी कथन भाषा की सीमितता और अपर्याप्तता को तथा सत्ता की अवाच्यता या अवक्तव्यता को ही सूचित करते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या तत्त्व या सत्ता को किसी भी प्रकार वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता हैं? यदि ऐसा है तो सारा वाक् व्यवहार निरर्थक होगा। श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्र और आगम व्यर्थ हो जायेंगे। यही कारण था कि जैन चिन्तकों ने सत्ता या तत्त्व को समग्रतः (एज ए होल) अवाच्य या अवक्तव्य मानते हुए भी अंशतः या सापेक्षतः वाच्य माना। जैन ज्ञानदर्शन 255
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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