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________________ उदाहरण प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरूद्ध धर्म (विधेय) का प्रतिपादन कर देना है। जैसे - द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्याय दृष्टि से घड़ा अनित्य है। (3) प्रथम भंग - अD उवि है। द्वितीय भंग - अ, उ, ~ वि, नहीं है। उदाहरण प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का वस्तु में निषेध कर देना। जैसे-रंग की दृष्टि से यह कमीज नीला है। रंग की दृष्टि से यह कमीज पीला नहीं है। अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतन है। अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है। अथवा उपदान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है। उपदान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का नहीं है। (4) प्रथम भंग - अ, उ, है। द्वितीय भंग - अ उ नहीं है। उदाहरण जब प्रतिपादित कथन देश या काल या दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश काल आदि की अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रतिपादित कथन का निषेध कर देना। जैसे-15 अगस्त 1947 के पश्चात् से पाकिस्तान का अस्तित्व है। 15 अगस्त 1947 के पूर्व में पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था। द्वितीय भंग के उपरोक्त चारों रूप में प्रथम और द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहां प्रथम रूप में एक ही धर्म (विधेय) का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषध होता है, वहां दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरूद्ध धर्मों (विधेयों) का विधान होता है। प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और कभी उपस्थित नहीं रहे। इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध युगल का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हो ही। तीसरा रूप तब बनता है, जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म की उपस्थिति ही न 242 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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