________________
नहीं है, तो दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की अपेक्षा से है। अब दूसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है। यहां प्रथम भंग में द्रव्य अपेक्षा से घड़े की नित्य कहा गया है और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया है। द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न-भिन्न हैं। दूसरे यह कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योंकि परचतुष्टय वस्तु की सत्ता निषेधक नहीं हो सकता है। वस्तु में परचतुष्टय अर्थात् स्व भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अभाव तो होता है, किन्तु उनकी अपेक्षा वस्तु का अभाव नहीं होता है। क्या यह कहना कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की अपेक्षा यह घड़ा नहीं हैं, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग हैं? इस कथन में जैनाचार्यों का आशय तो यही है कि टेबल कुर्सी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं है। अतः परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है यह कहने की अपेक्षा यह कहना कि वस्तु में परचतुष्टय का अभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग होगा। विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी। क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगो की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अतः यहां द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि से द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैंसांकेतिक रूप (1) प्रथम भंग -अ, 2 उवि, है द्वितीय भंग -अ, उ,वि, नहीं है उदाहरण प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान किया गया है, अपेक्षा बदल कर द्वितीय भंग में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। जैसे-द्रव्य दृष्टि से घड़ा
नित्य है, पर्याय दृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है। (2) प्रथम भंग - अ, उ,वि, है।
द्वितीय भंग - अ, उ, वि, है यह चिन्ह प्रथम भंग के विधे के विरूद्ध विधेय का सूचक है जैसे नित्य के स्थान पर अनित्त्य।
जैन ज्ञानदर्शन
241