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हो। चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जबकि हमारे प्रतिपादन में विधेय का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो। द्वितीय भंग के पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघात पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता। तृतीय रूप में अपेक्षा वहीं रहती हैं, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रिया पद निबोधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का निषेध कर दिया जाता है।
सप्तभंगी का तीसरा मौलिक भंग अवक्तव्य है, अतः यह विचारणीय है कि इस भंग की योजना का उद्देश्य क्या है? सामान्यतया यह माना जाता है कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध धर्मों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रतिपादित करने वाला ऐसा कोई शब्द नहीं है। अतः विरुद्ध धमों की एक साथ अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्य भंग की योजना की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नही है। यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डा. पद्मराज ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है : (1) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण जिसमें विश्व कारण की खोज करते
हुए ऋषि उस कारण तत्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता
है, यहां दोनों पक्षों का निषेध है। (2) दूसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण जिसमें सत् असत् आदि विरोधी
तत्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसेः तदेजति तनेजति अणोरणीयान् महतो
महीयान्, सदसद्वरेण्यम् आदि। यहां दोनों पक्षों की स्वीकृति है। (3) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्व को स्वरूपतः अव्यदेशीय या अनिर्वचनीय माना
गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है। जैसे - 'यतो वाचो निवर्तन्ते, यद्वावाम्युदित्य, नैव वाचा न मनसा प्राप्तु शक्यः, आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्टकोटि विनिर्मुक्त तत्व की धारणा में भी
बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (4) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता
के रूप में विकसित हुआ है। सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं :
जैन ज्ञानदर्शन
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