SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपेक्षाओं से दो अलग 2 कथन हो सकते हैं, किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)। स्यात् अस्ति च [अ उवि है. (अ..अ) यदि द्रव्य की अपेक्षा से अवक्तव्य च। [य उ य वक्तत्व है। विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि | अ, उ, वि, है0(अ)य - उ, आत्मा की द्रव्य पर्याय अवक्तत्वय है। दोनों या अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से एक साथ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। स्यात् नास्ति च [अ. उवि नहीं है0(अ,अ) यदि पर्याय की अपेक्षा अवक्तव्य [य - उ अवक्तव्य है। विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि | अ. उवि नहीं है0 अनन्त अपेक्षा की दृष्टि L(अ)य 5 उ अवक्तव्य है।से विचार करते हैं तो आत्मा है। स्यात् अस्ति च नास्ति ।अ उ वि, है0अ, उ, यदि द्रव्य से विचार करते च अवक्तव्य च | वि, नहीं है0(अ अ.)य उ, हैं तो आत्मा नित्य है [अवक्तव्य है। और यदि पर्याय दृष्टि या विचार करते हैं तो आत्मा | अ उव, है0अ.- उ.वि, नित्य नहीं है किन्तु यदि | नहीं है0(अ)य उ, आत्मा नित्य नहीं है अवक्तव्य है। किन्तु यदि आत्मा अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा - अवक्तव्य है। सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख किया है, किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसी चार अपेक्षाए मानी है। उनमें भी भाव अपेक्षा व्यापक है, उसमें वस्तु की अवस्थाओं 238 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy