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________________ (पर्यायों) एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है, किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की सम्भावनाओं पर विचार करें तो ये अपेक्षाएं भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुत्व अनन्त धर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है, किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव है। इस सप्तभंगी का प्रथम भंग “स्यात् अस्ति' है। यह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा में इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि। इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों को विधान करना यह प्रथम “अस्ति" नामक भंग का कार्य है। दूसरा, “स्यात् नास्ति' नामक भंग वस्तुतत्व के अभावात्मक धर्म या वस्तु में कुछ धर्मों को अनुपस्थिति या नास्तित्व की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न पर चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह घड़ा ताम्बे का नहीं हैं, भोपाल नगर में बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का नहीं है आदि। मात्र इतना ही नहीं वह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा-पुस्तक, टेबल, कमल, मनुष्य आदि नहीं है। जहां प्रथम भंग यह कहता है कि घड़ा-घड़ा ही है, वहां दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा घट से इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च' अर्थात सभी वस्तुओं की सत्ता स्व रूप से है पर रूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गुण-धर्मों की सत्ता भी मान ली जावेगी तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्वस्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अतः वस्तु में पर चतुष्ट का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है। सामान्यतया इस द्वितीय भंग को 'स्यात् नास्ति घटः अर्थात् किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्म विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। शंकर प्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उसका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। स्यात् अस्ति घटः और स्यात् नास्ति घटः में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर ‘अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है, तो आत्म विरोध का जैन ज्ञानदर्शन 239
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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