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________________ nल ० 8 । DP सप्तंभगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमनें चिह्नों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है - चिन्ह . अर्थ यदि - तो (हेतुफलाश्रित कथन) अथवा अन्तर्भूतता (Implication) अपेक्षा (दृष्टिकोण) संयोजन (और) युगपद् भाव (एक साथ) अनन्तत्व व्याधातक (विरुद्ध), निषेधक उद्देश्य विधेय भागों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप स्यात् अस्ति अ, उ, वि, है। स्यात् नास्ति अ, उ, वि, नहीं है। ठोस उदाहरण यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है। यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते है तो आत्मा नित्य और पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं स्यात् अस्ति नास्ति च । अ, उ, वि है। . Lअ- उ, वि, नहीं है स्यात् अवक्तव्य | (अ, 0 अ) या उ यदि द्रव्य और पर्याय [अवक्तव्य है। दोनों ही अपेक्षा से या अथवा अनन्त अपेक्षाओं से एक (अ य उ अवक्तव्य है। साथ विचार करते है। तो आत्मा अवक्तव्य है (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न जैन ज्ञानदर्शन 237
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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