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________________ या कथन अनेकान्तिक नहीं होता अपितु वस्तुतत्व एवं उसका ज्ञान अनेकान्तिक होता है। कोई भी कथन नय या विवक्षा से रहित नहीं होता है। अतः प्रत्येक कथन ऐकान्तिक होता है। वह सम्यक एकान्त होता है। कथन केवल अविरोधी एवं सापेक्षक होते हैं अनेकान्तिक नहीं। यदि हम स्यात् को कथन की अनेकान्तता का सूचक भी मानें तो यहां कथन की अनेकान्तता से हमारा तात्पर्य मात्र इतना ही होगा कि 'वह (स्थात्) वस्तुत्व (उद्देश्यपद) की अनन्तधर्मात्मकता को दृष्टि में रखकर उसके अनुक्त एवं अव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं करते हुए निश्चयात्मक ढंग से किसी एक विधेय का सापेक्षित रूप में किया गया विधान या निषेध है। किन्तु यदि कथन की अनेकान्तता से हमारा आशय यही हो कि वह उद्देश्य पद के सन्दर्भ में एक ही साथ एकाधिक परस्पर विरोधी का विधान या निषेध है अथवा किसी एक विधेय का एक ही साथ विधान और निषेध दोनों ही है, तो यह धारणा भ्रान्त है और जैन दार्शनिकों का स्वीकार्य नहीं है। इस प्रकार स्यात् शब्द की योजना के तीन कार्य हैं। एक कथन या तर्क वाक्य के उद्देश्य पद की अनन्त धर्मात्मकता को सूचित करना, दूसरा विधेय को सीमित या विशेष करना और तीसरे कथन का सोपाधिक (Conditional) एवं सापेक्ष (Relative) बनाना है। यद्यपि जैन तार्किकों ने स्यात् शब्द के इन अर्थों को इंगित अवश्य किया है तथापि इसमें अपेक्षित स्पष्टता नहीं आ पायी क्योंकि दोनों के लिए एक ही शब्द प्रतीक स्यात् का प्रयोग किया गया था। स्यात् को अनेकान्तता के द्योतक के साथ-साथ विवक्षित अर्थ का विशेषण (गम्यं प्रति विशेषण आप्त मीमांसा 103) एवं कंथचित् अर्थ का प्रतिपादक (कथंचिदर्थ स्यात् शब्दों निपातः-पंचास्तिकाय टीका) भी माना गया है। अतः उपरोक्त विवेचना अप्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थों के आधार से रहित नहीं है। साथ ही, वह कथन की सोपाधिकता एवं सापेक्षता का भी सूचक है। अनेकान्त का द्योतक होना एवं कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक होना यह दो भिन्न-भिन्न बातें हैं। अनेकान्त का द्योतक होना यह कथन के उद्देश्य को सामान्य रूप से उसके पूर्ण परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने का सूचक है जबकि कंथचित् अर्थ का प्रतिपादक होना यह कथन के विधेय सीमित विशेष या आंशिक रूप से ग्रहण करने का सूचक है। स्यात् शब्द उद्देश्य को तो व्यापक परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करता है, किन्तु जबकि स्यात् के साथ 'असित' तथा एवं शब्द की जो योजना की जाती है तो वह विधेय को आंशिक रूप से ही ग्रहण कर पाती है (स्याच्छष्दादप्यनेकान्त सामान्यस्य विबोधते शब्दान्तर प्रयोग अत्र विशेष प्रतिपत्तये-श्लोकवार्तिक 55)। स्यात् शब्द के इन भिन्न-भिन्न अर्थों की स्पष्टता पर मैं इसलिए बल देना चाहता हूं ताकि इन अलग अर्थों के आधार पर खड़ी हुई प्रमाण • 234 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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