________________
सप्तभंगी और नय सप्तभंगी की भिन्नता को ठीक से समझा जा सके। प्रमाण सप्तभंगी उद्देश्य की अनन्त धर्मात्मकता पर बल देती हैं जबकि नय सप्तभंगी विधेय की सीमितता एवं कथन की सापेक्षता पर बल देती है। इस पर हम आगे विचार करेंगे। क्या स्यात् प्रसंभाव्यता (Possivlity) का सूचक है?
आधुनिक त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के प्रभाव के कारण यह प्रशन उठा है कि स्यात् शब्द को सम्भाव्यता के अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है यद्यपि आधुनिक विचार सम्भाव्यता को उस अनिश्चयात्मक एवं संशयपरक अर्थ में नहीं लेते हैं जैसा कि प्रायः पहले उसे लिया जाता था। पूना विश्वविद्यालय के डा. बारलिंगे एवं डा. मराठे ऐसा सोचते हैं कि स्यात्-सम्भाव्यता का सूचक है। डा. मराठे ने तो इस सम्बन्ध में एक निबन्ध पूना विश्वविद्यालय की जैनदर्शन सम्बन्धी संगोष्ठी (सन 1976) में प्रस्तुत किया था। मैं भी यहां इस प्रश्न पर गम्भीर विचार तो प्रस्तुत नहीं करूंगा केवल मात्र निर्देशात्मक रूप में कुछ बातें कहना चाहूंगा। वस्तुतः कथन में स्यात् शब्द की योजना का स्पष्ट प्रयोजन यह है कि हमारा कथन वस्तु के अनुक्त और अव्यक्त धर्मों का निषेधक न बने। यहां पर अनुक्त और अव्यक्त इन दोनों के अर्थों का स्पष्टीकरण आवश्यक है। अनुक्त धर्म वे हैं, जो व्यक्त तो है किन्तु जिनका कथन नहीं किया जा रहा है, जबकि अव्यक्त धर्म में वे हैं जो सत्ता में तो हैं, किन्तु अभिव्यक्त नहीं हो पाये हैं जैसे बीज में वृक्ष की सम्भाव्यता का धर्म। जैन परम्परा की भाषा में इन्हें वस्तु की भावी पर्यायें भी कहा जा सकता है। भगवतीसूत्र में निश्चय और व्यवहार नयों की चर्चा के प्रसंग में महावीर ने यह स्पष्ट किया है कि वस्तु में प्रकट एवं दृश्यमान धर्मों के साथ अव्यक्त एवं गौण धर्मों की सत्ता भी होती है। यदि स्यात् शब्द की योजना का उद्देश्य केवल कथन में अनुक्त धर्मों का निषेध न हो, इतना ही होता तब तो उसे सम्भाव्यता के अर्थ में ग्रहण करना आवश्यक नहीं था, किन्तु यदि स्यात् शब्द के कथन में अव्यक्त धर्मों की सत्ता का भी सूचक है तो प्रसम्भाव्यता के अर्थ में गृहीत किया जा सकता है। किन्तु हमें यह स्पष्ट रूप से ध्यान रखना चाहिए कि आकस्मिकता एवं अकारणता सम्बन्धी सम्भावनाएं जैन दर्शन में स्वीकार्य नहीं हैं क्योंकि वह इस असत् की सम्भावना को स्वीकार नहीं करता है। यदि सम्भावना का अर्थ 'जो असत था उसका सत्ता में आना है' तो ऐसी सम्भाव्यता को व्यक्त करना स्यात् शब्द का प्रयोजन नहीं है। जैन दर्शन जिन सम्भाव्यताओं को स्वीकार करता है वे हैं ज्ञान सम्बन्धी सम्भावनाएं, जैसे वस्तु का जो गुण आज हमें ज्ञात नहीं है वह कल ज्ञात हो सकता है, क्षमता सम्बन्धी सम्भावनाएं जैसे जीव में पूर्ण क्षमता है और जैन ज्ञानदर्शन
235