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है। जिनका स्पष्टीकरण आवश्यक है। यदि हम स्यात् शब्द के बाद के कथन को कोष्टक में रख दें, तो यह बात अधिक स्पष्ट हो जायगी जैसे “स्यात् (आत्मा नित्य है) क्योंकि सप्तभंगी के कथनों का पूर्ण बल तो स्यात् शब्द की योजना में है।" अब कोष्टक हटाने पर इसका रूप होगा स्यात् आत्मा स्यात् नित्य स्यात् है (अस्ति)। अब हम देखें कि स्यात् आत्मा, स्यात् नित्य और स्यात् अस्ति में प्रत्येक के साथ लगा हुआ स्यात् क्या अर्थ देता है।
स्थात् शब्द क्रिया या संयोजक के सन्दर्भ में अनेकान्तिकता का सूचक नहीं हैं क्योंकि अनेकांतिक क्रिया तो अनिश्चय या संशय को ही व्यक्त करेगी। स्यात् को ‘होना' क्रिया का रूप अथवा अनिश्चय सूचक क्रिया विश्लेषण मानने के कारण ही स्याद्वाद को अनिश्चयवाद, संशयवाद या आत्मविरोधी सिद्धान्त समझने की भूल की जाती रही है। वस्तुतः क्रिया के सम्बन्ध में उसका अर्थ इतना ही है कि विधान या निषेध निरपेक्ष रूप से नहीं हुआ है अर्थात् अन्य अनुक्त एवं अव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं हुआ है। यहाँ उसका अर्थ है अविरोधपूर्वक कथन। जिसे हम हिन्दी भाषा में भी शब्द से लक्षित कर सकते हैं। अतः क्रिया के सम्बन्ध से स्यात् का अर्थ है अविरोधी और सापेक्ष कथन । विधेय पद के सम्बन्ध में स्यात् शब्द का अर्थ होगा ‘अनेक में एक' अर्थात् कथित विधेय उद्देश्य के अनेक सम्भावित विधेयों में एक है। जब हम यह कहते है कि स्यात् घड़ा शिशिर ऋतु का बना हुआ है, तो हमारा आशय यह होता है कि घड़े के सम्बन्ध में जिस अनेक विधेयों का विधान या निषेध किया जा सकता है उसमें यहां एक विधेय शिशिर ऋतु का बना हुआ है, इसका विधान किया गया है। एक तर्क वाक्य में एक ही विधेय का विधान या निषेध होता है। यदि हम एकाधिक विधेयों का विधान या निषेध करते हैं तो ऐसी अवस्था में वह एक तर्क वाक्य न होकर, जितने विधेय होते हैं, उतने ही तर्क वाक्य होते हैं। उद्देश्यपद अर्थात् वह वस्तुत्व, जिसके सन्दर्भ में विधेय का विधान या निषेध किया जा रहा है, के सम्बन्ध में स्यात् शब्द अनन्त धर्मात्मकता का सूचक है। इस प्रकार स्यात् शब्द उद्देश्य की अनन्त धर्मात्मकता का विधेय के अनेक में एक होने का तथा क्रिया के अविरोधी और कथन के सापेक्षिक होने का सूचक है। इस प्रकार प्रत्येक सन्दर्भ में उसके अलग-अलग कार्य हैं। वह उद्देश्य के सामान्यत्व (व्यापकता) विधेय के विशेषत्व और क्रिया के सापेक्षत्व का सूचक है। यद्यपि आचार्य समन्तभद्र ने वाक्येषु शब्द का जो प्रयोग किया है उसके आधार पर कोई यह कह सकता है कि स्यात् शब्द को कथन की अनेकान्तता का द्योतक क्यों नहीं माना जाता। मेरा विनम्र निवेदन यह है कि प्रथम तो ऐसी स्थिति में “वाक्येषु" के स्थान पर “वाज्ञक्यस्य" ऐसा प्रयोग होना था। दूसरे यह कि वाक्य जैन ज्ञानदर्शन
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