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तो परम तत्व को शून्य और अशून्य आदि किसी भी संज्ञा से अभिहित करना उचित नहीं समझते क्योंकि परम तत्व को शून्य अशून्य, आदि किसी संज्ञा से अभिहित करना उसे बुद्धि की कल्पना के भीतर लाना है। परम तत्व तो विचार की विधाओं से परे है, चतुष्कोटी विनिर्मुक्त है, विकल्पों के जाल से परे है।
गीता भी कहती है 'परम तत्व के बोध के लिए विकल्पों के जनक मन को आत्मा में स्थित करके कुछ भी चिन्तन या विकल्प नहीं करना चाहिए। जिस साधक के मन में विकल्पों का यह ज्वार शांत हो चुका है और जिसके मन की समस्त चंचलता समाप्त हो गई है, वही योगी ब्रह्मभूत, निष्पाप और उत्तम से युक्त होता।" व्यवहार और परमार्थ की आचारदर्शन के लिए आवश्यकता
इस प्रकार आचार दर्शन अपने आदर्श के रूप में जिस सत्ता के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि चाहता है वह दृष्टिकोणों या नयों के द्वारा प्राप्त नहीं होती, लेकिन नयपक्षों या दृष्टिकोणों से प्रत्युत्पन्न विकल्पों के समस्त जाल के विलय होने पर शुद्ध निर्विकल्प समाधि की अवस्था में प्राप्त होता है। यही निर्विकल्प समाधि की अवस्था ही जैन, बौद्ध और वेदान्त के आचारदर्शन का चरम लक्ष्य है, जिसमें सत् साक्षात्कार हो जाता है। लेकिन सम्भवतः यहाँ विद्वतवर्ग यह विचार करेगा कि यदि साधना का लक्ष्य ही नयपक्षों या विकल्पों से ऊपर उठना है, तो फिर आचारदर्शन या तत्वज्ञान के क्षेत्र में नयपक्षों या तत्वदृष्टियों के निरूपण की क्या आवश्यकता है? लेकिन इस प्रश्न का समुचित उत्तर जैन आचार्य कुन्दकुन्द और बौद्ध शून्यवादी दार्शनिक नागार्जुन बहुत पहले दे गये हैं।
यद्यपि साधना की पूर्णता या यथार्थ की उपलब्धि विकल्पों से अथवा नयपक्षों से ऊपर उठने में ही है लेकिन यह ऊपर उठना उनके ही सहारे सम्भव होता है, व्यवहार के सहारे परमार्थ को जाना जाता है और उस परमार्थ के सहारे उस निर्विकल्प सत्ता का बोध होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं जिस प्रकार किसी अनार्य जन को उसकी अनार्य भाषा के अभाव में वस्तुस्वरूप समझाने में कोई भी आर्यजन सफल नहीं होता, उसे यथार्थ का ज्ञान कराने के लिए उसी की भाषा का अबलम्बन लेना होता है, इसी प्रकार व्यवहार दृष्टि के अभाव में व्यवहार जगत में रहने वाले प्राणियों को परमार्थ को बोध नहीं कराया जा सकता।
आचार्य कुन्दकुन्द के ही उपरोक्त रूपक को ही लगभग समान शब्दों में ही शून्यवादी बौद्ध आचार्य नागार्जुन भी प्रस्तुत करते है। यही नहीं, समकालीन भारतीय विचारकों में प्रो. हरियन्ना तथा पाश्चात्य विचारक ब्रेडले भी (Reality) ज्ञान के लिए आभास (व्यवहार Apearances) की उपादेयता को स्वीकार करते हैं, किन्तु विस्तार भय से उनके विस्तृत विचारों को यहाँ प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। जैन ज्ञानदर्शन
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