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वास्तविकता यह है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का बोध नहीं हो सकता और परमार्थ या निश्चयदृष्टि का बोध हुए बिना निर्वाण रूपी नैतिक आदर्श की उपलब्धि नहीं हो सकती । अतः पक्षातिक्रान्त नैतिक आदर्श निर्वाण तत्व-साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार के लिए परमार्थ और व्यवहार दोनों को जानना आवश्यक है, मात्र यही नहीं, दोनों को जानकर छोड़ देना भी आवश्यक है।
तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहार और परमार्थ का अन्तर
जैन परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक जिन दो दृष्टियों का प्रतिपादन किया गया है, वे तत्वज्ञान और आचारदर्शन, दोनों क्षेत्रों के लिए स्वीकार की गई हैं, फिर भी आचारदर्शन और तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय ( परमार्थ) और व्यवहार दृष्टि का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है ।
पं. सुखलाल जी इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जैन परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं वे तत्वज्ञान और आचारदर्शन दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं। इधर सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन में भी तत्वज्ञान और आचार दोनों का समावेश है । जब निश्चय, व्यवहार य का प्रयोग तत्वज्ञान और आचार दोनों में होता है तब सामान्य रूप से शास्त्र चिन्तन करने वाला यह अन्तर जान नहीं पाता कि तत्वज्ञान के क्षेत्र में किया जाने वाला निश्चय और व्यवहार का प्रयोग आचार के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयोग से भिन्न है और भिन्न परिणाम का सूचक भी है । तत्वज्ञान की निश्चयदृष्टि आचारविषयक निश्चयदृष्टि दोनों एक नहीं हैं। इसी तरह उभय विषयक व्यवहारदृष्टि के बारे में भी समझना चाहिए। मैं इतना ही सूचित करना चाहता हूँ कि निश्चय और व्यवहारनय यह दो शब्द भले ही समान हों, फिर भी तत्वज्ञान और आचार के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न अभिप्राय से लागू होते हैं ओर हमें विभिन्न परिणामों पर पहुँचाते हैं।'' यह देखने के पहले कि इन दोनों में यह विभिन्नता किस रूप में है, हमें भी देख लेना होगा कि इस विभिन्नता का कारण क्या है? वस्तुतः आचरण का सारा क्षेत्र ही व्यवहार का क्षेत्र है । तत्वज्ञान की नैश्चयिक ( पारमार्थिक ) दृष्टि से तो सारी नैतिकता ही एक व्यावहारिक संकल्पना है, यदि विशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि से बन्धन और मुक्ति भी व्यवहारिक सत्य ही ठहरते हैं, तो फिर आत्मा को बन्धन में मानकर उसकी मुक्ति के निमित्त किया जाने वाला सारा नैतिक आचरण भी व्यवहार के क्षेत्र में ही सम्भव है । आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जीव कर्म सेबद्ध है तथा जीवन कर्म उसका स्पर्श करता है यह व्यवहारनय का वचन है, जीव कर्म से अबद्ध है अर्थात् न बंधता है और न स्पर्श करता है । यह निश्चय (शुद्ध) नय का कथन है। अर्थात् आत्मा का बंधन और मुक्ति यह व्यवहारसत्य है ।
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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