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________________ व्यवहार और परमार्थ की मध्यस्थिति का द्योतक माना जा सकता है । इस सन्दर्भ में एक और महत्त्वपूर्ण अन्तर जैन और जैनेतर विचारणाओं में किया जा सकता है और वह यह कि बौद्ध और वेदान्त विचारणा में व्यवहारदृष्टि या लोकसंवृति को परमार्थ की अपेक्षा निम्नस्तरीय माना गया है, जबकि जैनदर्शन के अनुसार व्यवहार और निश्चय अपने-अपने स्वस्थानों की अपेक्षा से समस्तरीय हैं । वस्तुतः उनमें कोई तुलना करना ही अनुचित है । जैनदृष्टि के अनुसार व्यवहारनय के निराकरण के लिए निश्चयनय का अवलम्बन है, किन्तु निश्चयनयाबलम्बन भी कर्तव्य की इतिश्री नहीं, उसके आश्रय से आत्मा के स्वरूप का बोध करके उसे छोड़ने पर ही तत्व साक्षात्कार सम्भव है । वस्तुतः सत्ता का परमस्वरूप विचार का विषय नहीं है । वह तो विशुद्ध अनुभूति का विषय है । वह तत्वदर्शन है, तत्वज्ञान नहीं है । यदि वह ज्ञान कहा जा सकता है तो तत्वदर्शन या विशुद्ध अनुभूति आत्मा पर जो कुछ चिह्न बनाती है, वही ज्ञान है। ज्ञान अपनी पूर्णता में दर्शन या अनुभूति से पूर्ण तादात्म्य कर लेता है उसमें कोई संपलेषण या विश्लेषण नहीं होता, कोई विकल्प नहीं होता है । सत् की यथार्थ उपलब्धि विकल्पों के ऊपर उठने पर ही सम्भव है । आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं " तत्ववेदी दृष्टिकोण या नयपक्ष रूपी वन, जिसमें विकल्प रूपी जाल उठते हैं, को लांघकर जो अन्तर और बाह्य सभी ओर समरस एवं एकरस है वही स्वभावमात्र की अनुभूति करता है । तत्ववेदी तो उठती हुई चंचल विकल्प रूपी लहरों और उन विकल्पों की लहरों से प्रवर्तन होने वाले नयों (दृष्टिकोणों) के इन्द्रजाल को तत्काल दूर कर देता है ।" " इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्ता के यथार्थ बोध के लिए न केवल व्यवहार या निश्चय (परमार्थ) दृष्टिकोणों को जानना ही पर्याप्त है वरन् उनके भी परे जाना होता है जहाँ दृष्टिकोणों के समस्त विकल्प शून्य हो जाते हैं । जैन विचारणा के उपरोक्त दृष्टिकोण का समर्थन हमें बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में भी मिलता है । बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में पाया जाने वाला यह विचारसाम्य तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है । बौद्ध शून्यवादी-परम्परा के प्रखर दार्शनिक आचार्य नागार्जुन, आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के साथ समस्वर हो कह उठते हैं" - भगवान बुद्ध ने समस्त दृष्टियों की शून्यता ( नयपक्षकक्ष रहितता) का उपदेश दिया है, जिसकी शून्य ही दृष्टि है ऐसा साधक ही परमतत्व का साक्षात्कार करता है। आगे परमतत्व के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं - वह परमतत्व न शून्य है, न अशून्य है, न दोनों है और न दोनों नहीं है । शून्यवादी बौद्ध दार्शनिक जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 214
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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