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________________ पूर्ववर्ती प्रभाव की सहायता प्राप्त होती है, किन्तु इससे उस प्रमाण की स्वतन्त्रता पर कोई बाधा नहीं होती। अनुमान के लिए प्रत्यक्ष और व्याप्ति सम्बन्ध की अपेक्षा होती है, किन्तु इससे उसके स्वतन्त्र प्रमाण होने में कोई बाधा नहीं आती। जैन दार्शनिकों की विशेषता यह है कि वे तर्क की केवल शंका के निर्वृतक के ही नहीं, अपितु ज्ञान प्रदान करने वाला भी मानते हैं। अतः वह स्वतन्त्र प्रमाण है। जैन दर्शन और न्याय दर्शन में तर्क की महत्ता को लेकर मात्र विवाद इतना ही है कि जहाँ न्याय दर्शन तर्क का कार्य निषेधात्मक मानता है वहाँ जैन दर्शन में तर्क का विधायक कार्य भी स्वीकार किया है। पाश्चात्य निगमनात्मक न्याय मुक्ति मे प्रमाणिक निष्कर्ष की प्राप्ति के लिए कम से कम एक आधार वाक्य का सामान्य होना आवश्यक है, किन्तु ऐसे सामान्य वाक्य की, जो कि दो तथ्यों के बीच स्थित कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित होता है, की स्थापना कौन करे? इसके लिए उस आगमनात्मक तर्कशास्त्र का विकास हुआ जो कि ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित था, किन्तु ऐन्द्रिक अनुभववाद (प्रत्यक्ष-वाद) और उसी भित्ति पर स्थित मिल की अन्वय व्यतिरेक आदि की पाँचों आगमनिक विधियाँ भी निर्विवाद रूप से कार्य-करण सम्बन्ध पर आधारित सामान्य वाक्य की स्थापना में असफल ही रही है। श्री कोहेन एवं श्री नेगेल अपनी पुस्तक (Logic and Scientific Method) में मिल की आगमनात्मक युक्तियों की अक्षमता को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - The cannons of experimental inquiry are not therefore capable of demonstrating any casual laws. The experimental methods are neither methods of proof nor methods of discovery (P. 266-67)। वस्तुतः कोई भी अनुभवात्मक पद्धति जो निरीक्षण या प्रयोग पर आधारित होगी एक अधिक युक्तिसंगत प्राक्कल्पना से अधिक कुछ नहीं प्रदान कर सकती हैं। ह्यूम तो अनुभववाद की इस अक्षमता को बहुत पहले ही प्रकट कर चुका था, अतः पाश्चात्य तर्कशास्त्र में आगमनात्मक कुदान (Inductive Leap) की जो समस्या अभी भी बनी हुई है उसे भी जैन दर्शन के इस तर्क प्रमाण की अन्तः प्रमाण की अन्तः प्रज्ञात्मक पद्धति के आलोक में सुलझाने का एक प्रयास अवश्य किया जा सकता है। वस्तुतः आगमन के क्षेत्र में विशेष से सामान्य की ओर जाने के लिए जिन आगमनात्मक कुदान की आवश्यकता होती है- तर्क उसी का प्रतीक है वह विशेष और सामान्य के बीच की खाई के लिए एक पुल का काम करता है जिसके माध्यम से हम प्रत्यक्ष से व्याप्ति ज्ञान की ओर तथा विशेष से सामान्य की ओर बढ़ सकते हैं। 182 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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