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व्याप्ति ग्रहण माना जा सकता है । यदि हम उस विकल्प को प्रमाण मानते हैं, तो हमें उसे प्रत्यक्ष और अनुमान से अलग ही प्रमाण मानना होगा और ऐसी स्थिति में उसका स्वरूप वही होगा जिसे जैन दार्शनिक तर्क प्रमाण कहते हैं । यदि हम उस विकल्प ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते है तो व्याप्ति प्रमाणिक नहीं होगी । अप्रमाणिक ज्ञान से चाहे यथार्थ व्याप्ति प्राप्त भी हो जावे, किन्तु उसे प्रमाण नहीं मान सकते । यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे कि असत्य आधार वाक्य से सत्य निष्कर्ष प्राप्त करना । इसलिए जैन दार्शनिकों ने व्यंग्य में इसे हिजड़े से सन्तान उत्पन्न करने की आशा करने के समान माना है ।
वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष के फलस्वरूप होने वाले ऊहापोह को व्याप्ति ग्रहण का साधन माना है। यदि इस ऊहापोह का विषय मात्र प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा स्मृति रहती है तो फिर उसमें भी कोई विशिष्टता नहीं रहती है क्योंकि उसका विषय प्रत्यक्ष जितना सीमित ही रहता है । यदि इस ऊहापोह का विषय प्रत्यक्ष से व्यापक है, तो उसे अपनी इस विशिष्टता के कारण एक अन्य प्रमाण ही मानना होगा और यहाँ वह जैन दर्शन के तर्क प्रमाण से भिन्न नहीं कहा जा सकेगा ।
न्याय दार्शनिकों ने तर्क सहकृत भूयो दर्शन को व्याप्ति ग्राहक साधन माना है। वाचस्पति मिश्र ने न्याय वार्तिक तात्पर्य टीका में इसे स्पष्ट किया है कि अकेले प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता अपितु तर्क सहित प्रत्यक्ष से - व्याप्ति का ग्रहण होता है क्योंकि व्याप्ति उपाधिविहीन स्वाभाविक सम्बन्ध है । चूँकि भूयो दर्शन या प्रत्यक्ष से सकल उपाधियों का उन्मूलन सम्भव नहीं है, अतः इस हेतु एक नवीन उपकरण की आवश्यकता होगी और वह उपकरण तर्क है । किन्तु यह अकेला प्रत्यक्ष व्याप्ति ग्रहण में समर्थ नहीं है तो ऐसी स्थिति में व्याप्ति का ग्राहक अन्तिम साधन तर्क को ही मानना होगा । यद्यपि यह सही है कि तर्क प्रत्यक्ष के अनुभवों को साधक अवश्य बनाता है किन्तु व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष से नहीं होकर तर्क से
होता है। इसलिए तर्क के महत्त्व को स्वीकार करना होगा तर्क को प्रमाण की कोटि में स्वीकार न कर, उसकी महत्ता को अस्वीकार करना, कृतघ्नता ही होगी । इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने व्यंग्य करते हुए कहा था कि यह तो तपस्वी के यश को समाप्त करने जैसा ही है
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जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि तर्क प्रत्यक्ष की सहायता से ही व्याप्ति का ग्रहण करता है तो जैन दार्शनिकों का इससे कोई विरोध नहीं है। उन्होंने तर्क की परिभाषा में ही इस बात को स्वीकार कर लिया है कि प्रत्यक्ष आदि के निमित्त से तर्क की प्रवृत्ति होनी है । यह भी सही है कि प्रत्येक परवर्ती प्रमाण को अपने जैन ज्ञानदर्शन
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