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में इस त्रैकालिक ज्ञान सम्बन्धी सर्वज्ञत्व की अवधारणा का मात्र विकास ही नहीं हुआ, वरन् उसको तार्किक-आधार पर सिद्ध करने का प्रयास भी किया गया है। यद्यपि बुद्ध ने महावीर की त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा का खण्डन करते हुए उसका उपहासात्मक-चित्रण भी किया और अपने सम्बन्ध में त्रिकालज्ञा सर्वज्ञता की इस धारणा का निषेध भी किया था, लेकिन परवर्ती बौद्ध-साहित्य में बुद्ध को भी उसी अर्थ में सर्वज्ञ स्वीकार कर लिया गया, जिस अर्थ में जैन-तीर्थकरों अथवा ईश्वरवादी-दर्शनों में ईश्वर को सर्वज्ञ माना जाता है।
सर्वज्ञत्व के इस अर्थ को लेकर कि “सर्वज्ञ हस्तामलकवत् सभी जागतिकपदार्थों की कालिक-पर्यायों को जानता है" जैन-विद्वानों ने भी काफी उहापोह किया है। इतना ही नहीं, जैनदर्शन में सर्वज्ञता की नई परिभाषाए भी प्रस्तुत की गई है। कुन्दकुन्द और हरिभद्र का दृष्टिकोण
__प्राचीन युग में आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य हरिभद्र ने सर्वज्ञता की त्रिकालदर्शी उपयुक्त परम्परागत परिभाषा को मान्य रखते हुए भी नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की। आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में कहा कि -
जाणदि पस्सदिसव्वं ववहारणएण केवलीभगवं। केवलणाणी जाणदिपस्सदि नियमेण अप्पाणं ।।
__ - नियमसार159 सर्वज्ञ लोकालोक जैसी आत्मेतर सभी वस्तुओं को जानता है, यह व्यवहारनय है, जबकि यह कहना कि सर्वज्ञ अपने आत्मस्वरूप को जानता है, यह परमार्थदृष्टि है। इसके अतिरिक्त नियमसार(166), प्रवचनसार (80) एवं समयसार (11) द्रष्टव्य है। आचार्य हरिभद्र ने भी सर्वज्ञता का सर्वसम्प्रदाय-अविरुद्ध अर्थ किया था। पं. सुखलालाजी लिखते हैं कि प्रथमतः हरिभद्र ने सर्वज्ञत्व त्रैकालिकज्ञान हेतुवाद से समर्थन किया, किन्तु जब उनको हेतुवाद में त्रुटि या विरोध दिखाई दिया तो उन्होंने सर्वज्ञत्व सर्वसम्प्रदाय अविरुद्ध अर्थ किया एवं अपना योग सुलभ माध्यस्थ भाव प्रकट किया (देखें, दर्शन और चिन्तन खण्ड पृ. 553)। पं. सुखलालजी का दृष्टिकोण
वर्तमान युग के पण्डित सुखलालजी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्म, जगत् एवं साधना मार्ग सम्बन्धी दार्शनिक ज्ञान को ही उस युग में सर्वज्ञत्व माना जाता था न कि त्रैकालिक-ज्ञान को। जैन-परम्परा का सर्वज्ञत्व सम्बन्धी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समानभाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है। बुद्ध जब मालुक्यपुत्त नामक अपने शिष्य से कहते हैं कि मैं चार आर्यसत्यों के
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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