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________________ क्या नहीं जानता है? तो उसका उत्तर दिया गया कि "केवली सिय जाणई सिय ण जाणई"। जैन दर्शन की दृष्टि से भी कहे जो 'अनादि' है केवली भी उसकी आदि/प्रारम्भ को नहीं जान सकता है। केवली से यदि प्रश्न पूछा जाये कि आत्मा कब से है? संसार कब से है? षद्रव्य कब से है? आत्मा कर्म से बद्ध कब और कैसे हुआ? जीवात्मा संसार में कब से भव-भ्रमण कर रहा है? किसी जीव का प्रथम भव कौन सा था? तो केवली भी इनका उत्तर नहीं देकर मात्र यहीं कहेगा कि ये अनादिकाल से है। अनादि तथ्यों की आदि बताना यह केवली के लिए भी सम्भव नहीं है। इसीलिए भगवतीसूत्र में कहा गया है केवली भी कुछ जानता है, कुछ नहीं जानता है। केवली को सर्वज्ञ भी कहा जाता है। सर्वज्ञता की धारणा श्रमण और वैदिक- दोनों परम्पराओं की प्राचीन धारणा है। सर्वज्ञतावाद यह मानता है कि सर्वज्ञ देश और काल की सीमाओं से ऊपर उठकर कालातीत दृष्टि से सम्पन्न होता है और इस कारण उसे भूत के साथ-साथ भविष्य का भी पूर्वज्ञान होता है, लेकिन जो केवल ज्ञान है, उसमें सम्भावना, संयोग या अनियतता नहीं हो सकती। नियत घटनाओं का पूर्वज्ञान हो सकता है, अनियत घटनाओं का नहीं। यदि सर्वज्ञ को भविष्य का पूर्वज्ञान होता है और वह यथार्थ भविष्यवाणी कर सकता है, तो इसका अर्थ है कि भविष्य की समस्त घटनाएँ नियत है। भविष्यदर्शन और पूर्वज्ञान में पूर्वनिर्धारण गर्भित है। यदि भविष्य की सभी घटनाएँ पूर्वनियत है, तो नैतिक-आदर्श, वैयक्तिक-स्वातन्त्र्य और पुरूषार्थ का कोई अर्थ नहीं रहता। सर्वज्ञ के पूर्वज्ञान में कर्म का चयन निश्चित होता है, उसमें कोई अन्य विकल्प नहीं होता, तब वह चयन-चयन ही नहीं होगा और चयन नहीं है, तो उत्तरदायित्व भी नहीं होगा, अर्थात् सर्वज्ञतावाद अनिवार्यतः नियतिवाद की ओर ले जाता है। सर्वज्ञता का अर्थ जैन-दर्शन सर्वज्ञता को स्वीकार करता है। जैनागमों में अनेक ऐसे स्थल हैं, जिनमें तीर्थंकरों एवं केवलज्ञानियों को त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ कहा गया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, अंतकृत्दशांगसूत्र एवं अन्य जैनागमों में इस त्रिकालज्ञ सर्वज्ञतावादी धारणा के अनुसार गोशालक, श्रेणिक, कृष्ण आदि के भावी जीवन के सम्बन्ध में भविष्यवाणी भी की गई है। यह भी माना गया है कि सर्वज्ञ जिस रूप में घटनाओं का घटित होना जानता है, वे उसी रूप में घटित होती हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि जिसकी जिस देश, जिस काल और जिस प्रकार से जन्म अथवा मृत्यु की घटनाओं को सर्वज्ञ ने देखा है, वे उसी देश, उसी काल और उसी प्रकार से होंगी। उसमें इन्द्र या तीर्थंकर कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकता। उत्तरकालीन जैन-ग्रन्थों जैन ज्ञानदर्शन 127
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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