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________________ ज्ञान का ही दावा करता हूँ और दूसरे अगम्य एवं काल्पनिक तत्त्वों के ज्ञान का नहीं, तब वह वास्तविकता की भूमिका पर है। उसी भूमिका के साथ महावीर के सर्वज्ञत्व की तुलना करने पर भी फलित यही होता है कि अत्युक्ति और अल्पोक्ति नहीं करने वाले सन्त प्रकृति के महावीर द्रव्य-पर्यायवाद की पुरानी निर्ग्रन्थ-परम्परा के ज्ञान को ही सर्वज्ञत्व रूप मानते होंगे। जैन और बौद्ध परम्परा में इतना फर्क अवश्य रहा है कि अनेक तार्किक बौद्ध-विद्वानों ने बुद्ध को त्रैकालिक-ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ स्थपित करने का प्रयत्न किया है, तथापि अनेक असाधारण(प्रतिभासम्पन्न) बौद्ध-विद्वानों ने उनको सीधे-सादे अर्थ में ही सर्वज्ञ घटाया है, बौद्ध परम्परा में सर्वज्ञ का अर्थ धर्मज्ञ या वस्तु स्वरूप का ज्ञाता इतना ही रहा है। जबकि जैन-परम्परा में सर्वज्ञ का सीधा-सादा अर्थ भुला दिया गया और उसके स्थान में तर्कसिद्ध अर्थ ही प्रचलित एवं प्रतिष्ठित हो गया। जैन परम्परा में सर्वज्ञ के स्थान पर प्रचलित पारिभाषिक-शब्द केवलज्ञानी भी अपने मूल अर्थ में दार्शनिक-ज्ञान की पूर्णता को ही प्रकट करता है न कि त्रैकालिक ज्ञान को। 'केवल' शब्द सांख्यदर्शन में भी प्रकृतिपुरुषविवेक के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है और यदि यह शब्द सांख्य-परम्परा से जैन-परम्परा में आया है, यह माना जाए, तो इस आधार पर भी केवलज्ञान का अर्थ दार्शनिक-ज्ञान अथवा तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही होगा न कि त्रैकालिक-ज्ञान। आचारांग का यह वचन ‘जे एगं जाणई से सव्वं जाणइ' यही बताता है कि जो एक आत्मस्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है, वह उसकी सभी कषायपर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है, न कि त्रैकालिक-सर्वज्ञता। केवलज्ञानी के सम्बन्ध में आगम का यह वचन कि 'सी जाणइ सी ण जाणइ' (भगवतीसूत्र) भी यही बताता है कि केवलज्ञान त्रैकालिक-सर्वज्ञता नहीं है, वरन् आध्यात्मिक या दार्शनिक-ज्ञान है। डॉ. इन्द्रचन्द्रशास्त्री का दृष्टिकोण सर्वज्ञता के स्थान पर प्रयुक्त होने वाला अनन्तज्ञान भी त्रैकालिक-ज्ञान नहीं हो सकता। अनन्त का अर्थ सर्व नहीं माना जा सकता। वस्तुतः यह शब्द स्तुतिपरक अर्थ में ही आया है, जैसे वर्तमान में भी किसी असाधारण विद्वान के बारे में कह देते हैं कि उनके ज्ञान का क्या अन्त? उनका ज्ञान तो अथाह है। इसी प्रकार दूसरा पर्यायचाची शब्द केवलज्ञान आत्म-अनात्म के विवेक या आध्यात्मिक-ज्ञान से सम्बन्धित है। सर्वज्ञता का त्रैकालिक-ज्ञान सम्बन्धी अर्थ और पुरुषार्थ की सम्भावना लेकिन, एक गवेषक विद्यार्थी के लिए यह उचित नहीं होगा कि परम्परासिद्ध त्रैकालिक-सर्वज्ञता की धारणा की अवहेलना कर दी जाए। न केवल जैन-परम्परा में वरन् बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में भी सर्वज्ञता का त्रैकालिक-ज्ञानपरक जैन ज्ञानदर्शन 129
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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