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रूप भी माने गये हैं। जैन कर्म सिद्धान्त में आत्मा के ज्ञानोपयोग को भी आठ प्रकार का माना गया हैं- 1. मति-ज्ञान 2. मति-अज्ञान 3. श्रुत-ज्ञान और 4. श्रुत-अज्ञान 5. अवधि ज्ञान और 6. विभंग ज्ञान 7. मनःपर्यायज्ञान और 8. केवलज्ञान। मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान अज्ञान रूप नहीं हो सकते, क्योंकि वे साक्षात् ज्ञान है। अवधिज्ञान भी यद्यपि साक्षात् ज्ञान है, फिर भी विकृत आत्मा अर्थात् विभाव दशायुक्त नारकी जीवों या तिर्यञ्चों आत्मा में इसकी सम्भावना होने से वह अज्ञान रूप भी हो सकता है। प्रथमतया मनपर्याय केवल सम्यक् दृष्टि अप्रमत्त मुनियों को होता है वे मिथ्यात्व से युक्त नहीं होते हैं अतः मनपर्यायज्ञान विकृत या अज्ञान रूप नहीं होता है। दूसरे यदि मनःपर्यायज्ञान पर, स्व-चेतना की अपेक्षा विचार करे तो मन की पर्याये तो चेतना में यथावत ही अनुभूत होती है, अतः वे अज्ञान रूप नहीं हो सकती है। मनपर्यायज्ञान और केवलज्ञान भी मन और इन्द्रियों के आश्रित नहीं है, अतः वे विकृत नहीं होते हैं। मतिज्ञान
मन और इंद्रियों के माध्यम से वस्तु का जो विशेष-ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। प्रथमतया इन्द्रियों के माध्यम से बाह्यार्थों का जो सामान्य अवबोध होता है उसे 'दर्शन' (ऐन्द्रियकसंवेदन) कहते हैं, वह बोध सामान्य रूप होता है। उस बोध में मन का योगदान होने पर वस्तु का उसकी विशेषताओं सहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान कहलाता है। मतिज्ञान की इस प्रक्रिया के चार स्तर होते हैं, जिन्हें क्रमशः 1.अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय (अपाय) और 4. धारणा कहा जाता है। प्रथम इन्द्रिय का अपने विषय से सम्पर्क होता है, किन्तु उस समय जो अस्पष्ट अवबोध होता है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं, जैसे गहरी निद्रा में किसी के द्वारा एक-दो बार पुकारे जाने पर श्रवणेन्द्रिय का अपने विषय 'शब्द' से सम्पर्क तो होता है, किन्तु उसका स्पष्ट अवबोध नहीं होता है। उसके पश्चात् जब चेतना में यह बोध होता है कि कोई मुझे पुकार रहा है, तब उसे अर्थावग्रह कहते हैं। उसके पश्चात् जब चेतना उस बोध को विशेष रूप से जानने में प्रवृत्त होती है तो उस प्रक्रिया को ईहा कहते हैं, जैसे यह किसकी आवाज है? फिर भी ईहा संशय की अवस्था नहीं है, यह बोध की निर्णयाभिमुख अवस्था है, जैसे-ये किसी स्त्री के शब्द होना चाहिए, क्योंकि ये मधुर हैं। उसके पश्चात् जो निर्णयात्मक निश्चित बोध होता है, उसे अवाय या अपाय कहा जाता है। जब यह निश्चित बोध स्मृति में सुरक्षित किया जाता है तो उसे धारणा कहते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान की प्रक्रिया अवग्रह से प्रारंभ होकर धारणा में पूर्ण होती है।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान