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________________ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्र आदि की प्राचीन परम्परा में मतिज्ञान को परोक्ष ज्ञान ही माना गया था, क्योंकि इसमें आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से ही होता है । जो ज्ञान इंद्रियों या मन के द्वारा होता है, उसे परोक्ष ज्ञान ही कहा गया, क्योंकि यह पराश्रित है । इस प्रकार के ज्ञान में हम वस्तु के निज स्वरूप को न जानकार इन्द्रिय या मन उसे जिस प्रकार दिखाते हैं, वैसा देखते हैं । दूसरे यह कि मतिज्ञान इन्द्रिय और मन के माध्यम से पदार्थ या मनोविकल्पों का बोध करता है- ये सभी स्व से भिन्न है, परापेक्षी है, अतः मतिज्ञान परोक्ष ज्ञान ही है । किन्तु लगभग पांचवी शती से जैनाचार्यों ने इस ज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है, क्योंकि अन्य दार्शनिक परम्पराएं मन और इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष ज्ञान ही मान रही थी । मतिज्ञान के विषय 1 I मतिज्ञान के विषय पदार्थ अथवा मनोविकल्प ही हैं । पदार्थ स्व से भिन्न है, अतः 'पर' पर है। मनोविकल्प हमारे होकर भी हम उनके द्रष्टा होते हैं, अतः वे हमारे ज्ञान के विषय होते हैं । हम ज्ञाता होते हैं, और वे ज्ञेय होते हैं । ज्ञेय होने से वे हमसे इतर या भिन्न होते हैं, अतः मतिज्ञान भेद दृष्टिवाला होता है । मतिज्ञान यद्यपि सीमित ज्ञान है, फिर भी उसका विषय समस्त पदार्थ (द्रव्य), समस्त क्षेत्र, सभी काल और समस्त अवस्थाएँ (भाव) होते हैं । इस प्रकार मतिज्ञान के विषयों के निम्न बारह प्रकार बनते हैं - 1. एक (अल्प) 2. अनेक (बहु) 3. एक प्रकार के (एक विध) 4. अनेक प्रकार के ( अनेक विध) 5. शीघ्रगाही ( क्षिप्र ) 6. कठिनता या देरी से ग्राही (अक्षिप्र ) 7. निश्रित ( अन्य के आश्रित ) 8. अनिश्रित (अन्य किसी पर आश्रित नहीं ) 9. असंदिग्ध ( स्पष्ट ) 10. संदिग्ध ( अस्पष्ट ) 11. ध्रुवग्राही ( शाश्वत मूल्य वाले) और 12. अध्रुव ग्राही ( सामयिक मूल्य वाला) । मतिज्ञान के भेद अपने विषय की अपेक्षा से यह मतिज्ञान एक वस्तु का, अनेक वस्तुओं का, एक प्रकार की वस्तुओं का, अनेक प्रकार की अनेक वस्तुओं का हो सकता है। इसी प्रकार ज्ञान के स्वरूप की अपेक्षा से शीघ्रग्राही, संकेत से अर्थ का ग्राही, साक्षात अर्थ का ग्राही, संदिग्ध, असंदिग्ध तथा स्थायी या अस्थायी होता है । इस प्रकार मतिज्ञान के उपरोक्त बारह भेद भी होते हैं । अवग्रह के मूलतः दो भेद हैंव्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यञजनावग्रह अव्यक अनुभूति है, यह चार प्रकार का होता है - चक्षु और मन से व्यञजनावग्रह नहीं होता हैं, इनसे सीधा अर्थबोध या अर्थवग्रह होता है। चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों अर्थात् श्रोतेन्द्रिय (कान), घ्राणेन्द्रिय ( नासिका), रसनेन्द्रिय (जीभ) और स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) से होने जैन ज्ञानदर्शन 117
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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