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अनुभूति के विषय हों, वे स्थूल-सूक्ष्म या बादर-सूक्ष्म कहे जाते हैं, जैसे-प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि। सूक्ष्म-सूक्ष्म - जो विषय दिखाई नहीं देते हैं, किन्तु हमारी ऐन्द्रिक-अनुभूति के विषय बनते हैं, जैसे-सुगन्ध, शब्द आदि। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत् धारा का प्रवाह और किन्तु अनुभूत अदृश्य गैस भी इस वर्ग के अन्तर्गत
आती हैं। जैन आचार्यों ने ध्वनि, तरंग आदि को भी इसी वर्ग के अन्तर्गत माना है। वर्तमान युग में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा चित्र आदि का सम्प्रेषण किया
जाता है, उसे भी हम इसी वर्ग के अन्तर्गत रख सकते हैं। 5. सूक्ष्म- जो स्कंध इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते हों, वे इस वर्ग
के अन्तर्गत आते हैं। जैनाचार्यों ने कर्मवर्गणा, (जो जीवों के बंधन का कारण
है) मनोवर्गणा, भाषावर्गणा आदि को इसी वर्ग में माना है। 6. अति सूक्ष्म- द्वयणुक आदि अत्यन्त छोटे स्कंध अति सूक्ष्म माने गये हैं। स्कंध के निर्माण की प्रक्रिया
स्कंध की रचना दो प्रकार से होती है- एक ओर बड़े-बड़े स्कंधों के टूटने से या छोटे-छोटे स्कंधों के संयोग से नवीन स्कंध बनते हैं, तो दूसरी ओर परमाणुओं में निहित स्वाभाविक स्निग्धता और रूक्षता के कारण परस्पर बंध होता है, जिससे भी स्कंधों की रचना होती है (संघातभेदेभ्यः उत्पद्यन्ते-तत्त्वार्थ 5/26)। संघात का तात्पर्य एकत्रित होना और भेद का तात्पर्य टूटना या अलग-अलग होना है। किस प्रकार के परमाणुओं के परस्पर मिलने से स्कंध आदि की रचना होती है- 'इस प्रश्न पर भी जैनाचार्यों ने विस्तृत चर्चा की है।
पौद्गलिक स्कन्ध की उत्पत्ति मात्र उसके अवयवभूत परमाणुओं के पारस्परिक संयोग से नहीं होती है। इसके लिए उनकी कुछ विशिष्ट योग्यताएं भी अपेक्षित होती हैं। पारस्परिक संयोग के लिए उनमें स्निग्धत्व (चिकनापन), रूक्षत्व (रूखापन) आदि गुणों का होना भी आवश्यक है। जब स्निग्ध और रूक्ष परमाणु या स्कन्ध आपस में मिलते हैं, तब उनका बन्ध (एकत्वपरिणाम) होता है, इसी बन्ध से द्वयणुक आदि स्कन्ध बनते हैं।
स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं या स्कन्धों का संयोग सदृश और विसदृशदो प्रकार का होता है। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध सदृश बन्ध है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध विसदृश-बन्ध है।
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, जिन परमाणुओं में स्निग्धत्व या रूक्षत्व का अंश जघन्य अर्थात् न्यूनतम हो, उन जघन्य गुण (डिग्री) वाले परमाणुओं का पारस्परिक बन्ध नहीं होता है। इससे यह भी फलित होता है कि मध्यम और उत्कृष्टसंख्यक जैन तत्त्वदर्शन
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