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________________ अंशों वाले स्निग्ध एवं रूक्ष सभी परमाणुओं या स्कन्धों का पारस्परिक बन्ध हो सकता है, परन्तु इसमें भी अपवाद है, तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार समान अंशों वाले स्निग्ध तथा रूक्ष परमाणुओं का स्कन्ध नहीं बनता। इस निषेध का फलितार्थ यह भी है कि असमान गुण वाले सदृश अवयवी स्कन्धों का बन्ध होता है। इस फलितार्थ का संकोच करके तत्त्वार्थसूत्र (5/35) में सदृश असमान अंशों की बन्धोपयोगी, मर्यादा नियत की गई है। तदनुसार, असमान अंशवाले सदृश अवयवों में भी जब एक अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व दो अंश, तीन अंश, चार अंश आदि अधिक हो, तभी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध होता है, इसलिए यदि एक अवयव के स्निधत्व या रूक्षत्व केवल एक अंश अधिक हो, तो भी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध नहीं होता है। उनमें कम से कम दो या दो से अधिक गुणों का अंतर होना चाहिए। पं. सुखलालजी लिखते हैं - श्वेताम्बर और दिगम्बर - दोनों परम्पराओं में बन्ध सम्बन्धी प्रस्तुत तीनों सूत्रों में पाठभेद नहीं है, पर अर्थभेद अवश्य है। अर्थभेद की दृष्टि से ये तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं - 1. जघन्यगुण परमाणु एक अंश वाला हो, तब बन्ध का होना या न होना, 2. 'आदि' पद से तीन आदि अंश लिए जाए या नहीं और 3. बन्ध विधान केवल सदृश अवयवों के लिए माना जाए अथवा नहीं। इस सम्बन्ध में पंडित जी आगे लिखते हैं1. तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेनगणि की उसकी वृत्ति के अनुसार जब दोनों परमाणु जघन्य गुणवाले हों, तभी उनके बन्ध का निषेध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्यगुण हो और दूसरा जघन्यगुण न हो, तभी उनका बन्ध होता है, परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुसार एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता। तत्त्वार्थभाष्य और उसकी वृत्ति के अनुसार सूत्र के 35 ‘आदि' पद का तीन आदि अंश अर्थ लिया जाता है, अतएव उसमें किसी एक परमाणु से दूसरे परमाणु में स्निग्धत्व या रूक्षत्व के अंश दो, तीन, चार तथा बढ़ते-बढ़ते संख्यात, असंख्यात अनन्त अधिक होने पर भी बन्ध माना जाता है। केवल एक अंश अधिक होने पर ही बन्ध नहीं माना जाता है, परन्तु सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुसार केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक अंश की तरह तीन, चार, संख्यात् असंख्यात् अनन्त अंश अधिक होने पर बन्ध नहीं माना जाता। 2. 90 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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