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________________ 78 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण करनी ही है तो केवल निज को पर का अकर्ता मानने के बजाय पर का त्याग भी तो अनिवार्य है । सब कुछ करते हुए भ्रम से अकर्ता मानना तो अकल्याण कर ही है । बिना इच्छा या भावना से तो कर्म तैयार होता नहीं है । प. पू. आ. विद्यासागरजी महाराज ने गंजबासौदा पञ्चकल्याणक में इस सम्बन्ध में निम्न उदाहरण दिया था, Rasgulla (रसगुल्ला) Can't go to mouth without intension. - बिना अभिप्राय के रसगुल्ला मुख में नहीं जा सकता । अर्थात् रसगुल्ला यदि खाया जा रहा है तो इस खादन क्रिया की इच्छा करने वाला कर्ता अवश्य है । ''मैं नहीं खाता शरीर खाता है," यह कल्पना भ्रम है । यदि शरीर खाता हो तो उसका फल भी शरीर को मिलना चाहिए । मांसादि का सेवन करने से शरीर नरक में नहीं जाता वस्तुत: जिसने खाया है वह आत्मा ही नरक में उस करनी का फल भोगता है । पं. बनारसीदासजी की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत करना संगत होगा - करै करम सोई करतारा । जो जानै सो जाननहारा । ज्ञाता सो करता नहिं होई। करता सो ज्ञाता नहिं कोई ॥ ज्ञानकला जिनके हियजागी । ते जगमांहि सहज वैरागी । ज्ञानी मगन विषय सुख माहीं । ये विपरित संभवै नाहीं ॥ दो पथ पन्थी चलै न पन्था । दो मुख सूई सिये न कन्था । दोउ काम नहिं होय सयाने । विषयभोग और मोक्षहु जाने ॥ . समयसार की वस्तुतत्त्व विवेचना में जीव के कर्मकर्तत्व के एकान्त का व कर्मकर्त्तत्व के अभाव के एकान्त की पुष्टि नहीं की गई है, हाँ, सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार में ईश्वर के अन्य मत सम्मत के सृष्टिकर्तृत्व रक्षा व संहार का संयुक्ति निराकरण है । वस्तुतः आत्मद्रव्य ही अपने उत्पादांश से ब्रह्मा, अपने व्ययांश से शंकर एवं अपने ध्रुवांश से विष्णु है । अन्य कोई नहीं, वही अपना सर्वस्व है । ईश्वर तो मात्र साक्षी भूत है । पू. ज्ञानसागरजी महाराज नय-विषयक सूझ-बूझ के धनी थे । निरूपण करने में यदि अन्य किसी टीकाकार की कुछ पंक्तियाँ यदि उन्हें प्रभावित करती हुई प्रतीत होती थी तो बड़ी रुचि से विषय के स्पष्टीकरण हेतु तथा श्रोता या पाठक को यथार्थ निर्णय होने तक उद्धृत भी करते थे । समयसार (तात्पर्यवृत्ति) गाथा नं. 351-54 की टीका-विशेषार्थ में देखिए, उपरोक्त, विषय में सहायक होगा । विशेषार्थ - पं. जयचन्दजी का भावार्थ - वस्तु का स्वभाव जिनवाणी में द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है । इसलिए पर्याय अपेक्षा (व्यवहार से) तो वस्तु क्षणिक है और द्रव्य अपेक्षा (निश्चय) नित्य है । ऐसा अनेकान्त स्याद्वाद से सिद्ध होता है । ऐसा होने पर जीव नामा वस्तु भी ऐसा ही द्रव्यपर्यायस्वरूप है, इसलिए पर्याय अपेक्षा कर देखा जाय तब कार्य को करता तो अन्य पर्याय है और भोगता अन्य ही पर्याय है । जैसे मनुष्यपर्याय में शुभाशुभ कर्म किये उनका फल देवादि पर्यायों में भोगा । परन्तु द्रव्य-दृष्टि कर देखा जाय तब जो
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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