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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
इतनी चिढ़ का कारण पू. आचार्य श्री को अपने जीवन काल (1972) तक संभवतः इस हेतु से ज्ञात नहीं हो सका होगा कि उस समय तक कानजी के स्वत: ही भावी तीर्थंकर होने की घोषणा गुप्त ही होगी तथा उनके कृत्रिम दिगम्बर जैनधर्म स्वीकृति की पोल नहीं खुली थी । श्वेताम्बरत्व छोड़कर कुन्दकुन्द के अध्यात्म ग्रहण के कारण कानजी के प्रति स्वाभाविक रूप से वात्सल्य उमड़ पड़ा था । उनको आगम विरुद्ध मान्यताओं, मुनि विरोध एवं सोनगढ़ के पोपडम के होते हुए भी प्रायः यही माना जाता था कि अज्ञान से यह सब हो रहा है । किन्तु अब तो सोनगढ़ी वर्ग के प्रति दिगम्बर जैनसमाज में स्पष्ट चेतना एवं अवधारणा बन चुकी है कि निमित्त या व्यवहार के प्रति चिढ़ का कारण अन्ततः श्वेताम्बरत्व के परिग्रह परिवेश में ही शुद्धोपयोग की सिद्धि एवं लोकेषणा में अन्तर्निहित है। उनके निश्चयनय का यह दुरुपयोग ही कहा जावेगा कि अद्यावधि आत्मा को शरीर से भिन्न कहनेवाले एवं एकद्रव्य से अन्य द्रव्य को बिलकुल अप्रभावी घोषित करनेवाले जनसमुदाय में क्या भावलिङ्गी' क्या द्रव्यलिङ्गी, एक भी साधक प्रकट नहीं हो पाया । मात्र भावलिङ्गी की निष्फल कल्पना समाज को विभाजित करने के असफल प्रयत्न में ही संलग्न रही। आ. जानसागरजी महाराज ने अपने समग्र साहित्य में अधिकांश तौर पर नामोल्लेख करते हुए कानजी के निश्चयदुर्नय और व्यवहार निरपेक्षता का निरसन किया है क्योंकि व्यवहाराभासी की अपेक्षा : निश्चययाभासी अधिक हानिकर होता है एवं उस काल में मुमुक्षु-मण्डल का मुखौटा लगाये मिथ्यात्व का जन्तु जैनधर्म के मुल तत्त्व चार आराधना, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूपी वृक्ष की जड़ काटता शंका का केन्द्र बन गया था । मात्र अकर्ता मानने के पर्यायरूप में सम्यग्दर्शन की व्याख्या की जा रही थी । एतदर्थ आर्षमार्ग की रक्षा हेतु आचार्य श्री का यह प्रयत्न अति स्तुत्य है । उन्होंने निश्चय-व्यवहार के कर्ताकर्मविषयक हार्द को स्पष्ट कर अपनी रचनायें की हैं।
आ. ज्ञानसागरजी ने समयसार पृष्ठ 309 (गाथा 344-46) पर हमारे कर्त्ता अकर्तापन विषयक एक सरल सूत्र विशेषार्थ के रूप में प्रदान किया है ।
"यहाँ पर आचार्य ने इस बात पर जोर दिया कि मुमुक्षु अर्थात् मुनि होकर भी अपने आपको कर्ता मानता रहेगा तब फिर वह मुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि जो अपने आपको कर्ता मान रहा है वह तो कुछ-न-कुछ करता ही रहेगा एवं जब कर्ता रहेगा तो उसका फल भी भोगता रहेगा । ऐसी दशा में मुक्त होने की बात कैसी? हाँ, इसके साथ यह बात भी समझ लेना चाहिए कि गृहस्थपन में कर्तापन से दूर नहीं हो सकता क्योंकि गृहस्थपन का कर्तापन के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है । गृहस्थपन में रहकर बुरा न करे तो भला करे; किन्तु कुछ तो करना ही होगा, अकर्ता नहीं रह सकता । फिर भी अकर्तापन की श्रद्धावाला हो सकता है; किन्तु स्वयं अकर्ता बनने के लिए गृहत्याग की एवं मुक्त हो जाने के लिए अकर्त्तापन की आवश्यकता होती है ।"
इस प्रकरण में यह ध्यान देने योग्य है कि मात्र अकर्तापन मान लेने से अकर्ता नहीं होता यह तो सांख्य मत के सदृश कल्पना है । पर-पदार्थों से कर्त्तत्व व सम्बन्ध हटाते जाने एवं ज्ञाता-दृष्टास्वरूप परिणमन करने से अकर्ता होता है । प्राप्त को यदि निष्कर्म सिद्ध अवस्था