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________________ 76 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण जैसे सांख्यमती कहै अलख अकरता है सर्वथा प्रकार करता न होय कबही। तैसे जिनमती गुरुमुख एकान्त पक्ष सुनि ऐसे ही मानै सो मिथ्यात्व तजै कबही ॥ जौलो दुरमती तौलों करम को करता है। सुमती सटा अकरतार कह्यो सबही । जाके हिय ज्ञायक सुभाव जग्यो जबही सों __सो तौ जग जाल सै निरालो भयो तबही ॥ पू.आ. विद्यासागरजी महाराज ने अपने प्रवचन में कहा था कि नय और नयन एकार्थवाची हैं । सभी अवगत हैं कि नेत्र अपने सम्मुख विषय को ही ग्रहण करता है उसकी दृष्टि में वही सत्य है तथा उसके पीछे भी अन्य विषय है जो उसकी दृष्टि में न आने से भले ही उसे असत्य या अविद्यमान कह दिया जावे परन्तु वह अन्य दृष्टि का विषय होने से सत्य ही है । एवंविध ही जहाँ एक और शुद्ध निश्चय नय आत्मा को परभावों (द्रव्यकर्म - नोकर्मरागद्वेषादि भावकर्म) का अकर्ता मानता है उसकी दृष्टि ही शुद्ध पर है, वहीं दूसरी ओर अन्य नय (व्यवहार) पर कर्त्तत्व की चेतन में स्वीकृति प्रदान करता है । आ. अमृतचन्द्रजी ने कहा है कि नय विवक्षा से आत्मा कर्ता और अकर्ता दोनों रूपों में स्वीकार है । ज्ञानी को नय का पक्षपात नहीं है । एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्कीविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातमस् तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव सम. कलश 74 ॥ . प. पू. आ. ज्ञानसागरजी महाराज के नय निरूपण रूपी दर्पण में निश्चय और व्यवहार दोनों ही स्पष्ट रूप में विशदरूप में प्रतिविम्बत होते हैं किसी पर कोई आवरण नहीं डाला जाता, किसी का आग्रह नहीं है । उन्होंने यथार्थ की स्थापना की है । एकान्तवाद का निरसन शंका समाधान की शैली में उनको रुचिकर है । व्यवहार कर्त्ता या निमित्त कर्ता की सिद्धि हेतु निम्न दृष्टव्य है, (सम्यक्त्वसारशतक, पृष्ठ 44) शङ्का - यदि ऐसा माने कि गुरु आये इसलिए श्रद्धा हुई तो गुरु कर्ता और शिष्य को श्रद्धा हुई इसलिए यह उनका कार्य हुआ । इस प्रकार दो द्रव्यों के कर्ता-कर्मपना आ जावेगा । (कानजी लिखित वस्तु विज्ञानसागर, पृष्ठ 39) समाधान - दो द्रव्यों के कर्ताकर्मपना आ जावेगा इसमें क्या हानि होगी । हमारे आचार्यों ने तो निमित्त-नैमित्तिक रूप में एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता और उसको उसका कर्म तो माना ही है । देखो - कुन्दकुन्दाचार्य ने ही समयसार में लिखा है कि - अण्णाणमओ भावो अण्णणिणो कुणदि तेण कम्माणि ॥135॥ __ श्रीमान्जी ! निमित्त (व्यवहार कर्ता) के नाम से आपको क्या (क्यों) इतनी चिढ़ है यह हम अभी तक नहीं समझ सके । हमारे आचार्यों ने तो विशेष कार्य को निमित्त विशेष के द्वारा ही निष्पन्न होता हुआ बतलाया है ।"
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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