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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
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करता है वही भोगता है ऐसा सिद्धि होता है जैसे कि मनुष्य पर्याय में जो जीव द्रव्य था जिसने शुभ तथा अशुभकर्म किये थे वही जीव देवादि पर्याय में गया उसी जीव ने अपने किये का फल भोगा । इस प्रकार वस्तु का स्वरूप अनेकान्त रूप सिद्ध होने पर भी शुद्ध नय में तो संशय नहीं किन्तु शुद्धनय के लोभ से वस्तु का पर्याय वर्तमान काल में जो एक अंश था उसी को वस्तु मानकर ऋजुसूत्रनय का एकान्त पकड़कर जो ऐसा मानते हैं कि जो करता है वह भोगता नहीं है । अन्य भोगता है और जो भोगता है वह कर्त्ता नहीं है अन्य करता है, ऐसे मिथ्यादृष्टि अरहंत मत के नहीं है ।
अन्यत्र भी आ. ज्ञानसागरजी ने अपने विवेचन की पुष्टि हेतु पं. जयचन्दजी के भावार्थ का उपयोग किया है जो कि निम्न उद्धरण से स्पष्ट है, समयसार पृष्ठ 328
विशेषार्थ पं. जयचन्दजी का भावार्थ- सांख्यमती पुरुष (आत्मा) को एकान्त कर अकर्त्ता शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र मानते हैं । ऐसा मानने से पुरुष के संसार का अभाव आता है। प्रकृति को संसार माना जाय, तो प्रकृति तो जड़ है उसके सुख-दुःख आदि का संवेदन नहीं है इसलिए किसका संसार, इत्यादि दोष आते हैं क्योंकि सर्वथा एकान्त वस्तु का स्वरूप नहीं है, इस कारण वे सांख्यमती मिथ्यादृष्टि है उसी प्रकार जो जैनी भी मानते हैं तो वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । इसलिए भावार्थ उपदेश करते हैं कि सांख्यमतियों की तरह जैनी आत्मा को सर्वथा अकर्त्ता मत मानो । जब तक आपा पर का भेदविज्ञान न हो तो रागादिक अपने चेतन रूप भाव- कर्मों का कर्त्ता मानों । भेद-विज्ञान हुए पश्चात् (समाधिकाल में) शुद्ध विज्ञान घन समस्त कर्तापन के अभाव कर ( रहित ) एक ज्ञाता ही मानो । इस प्रकार एक ही आत्मा में कर्त्ता और अकर्त्ता दोनों भाव विवक्षा के वश से सिद्ध होते हैं। यह स्याद्वाद जैनियों का है तथा वस्तु स्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है । ऐसा मानने से पुरुष के संसार, मोक्ष आदि की सिद्धि होती है सर्वथा एकान्त मानने में सब निश्चय - व्यवहार का लोप हो जाता है ऐसा जानना ।" (तात्पर्य वृत्ति, गाथा 363-367 )
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पू. आ. विद्यासागरजी महाराज का पद्यानुवाद भी इसी बात का समर्थन करता है " जो भी करे करम ही करता कराता,
संसार का रचयिता बस कर्म भाता ।
ऐसा हि सांख्य मत सा यदि तू कहेगा,
आत्मा अकारक रहा भव क्या रहेगा ||363॥
सारांश यह है कि संसार में जीव ही कर्त्ता - भोक्ता है, रागादि भाव कर्म का कर्त्ता पुद्गल नहीं है निश्चय नय से आत्मा ही है । द्रव्य कर्मों का कर्म आत्मा व्यवहार नय से है अर्थात् निमित्त कर्त्ता । घट-घट आदि कर्मों का कर्त्ता उपचरित नय से आत्मा ही है। सभी दृष्टियों से सिद्ध है कि कर्मों का फल आत्मा ही भोगता है । अतः वही कर्त्ता । आत्मस्वरूप कर्त्तापन से रहित है जो सिद्ध अवस्था में प्रकट होता है । शुद्धनय के विषयभूत अकर्त्तापन का ज्ञान - श्रद्धान अकर्त्ता होने के लिए एवं उसके साधन रत्नत्रय से प्रकट करने के लिए है न कि वर्त्तमान में कर्त्ता - भोक्ता साक्षात् होते हुए भी भ्रम से अपने को अकर्त्ता