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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण • जहाँ कार्य बिना विचारे हो जाता है वहाँ इष्ट एवं अनिष्ट अपने देव के द्वारा हुआ मानना चाहिए और जहाँ बुद्धिपूर्वक अपेक्षा है वहाँ इष्ट और अनिष्ट अपने पुरुषार्थ से निष्पन्न मानना योग्य है ।” देव और पुरुषार्थ का यह स्पष्टीकरण सर्वत्र प्रयोज्य है । किसी भी निश्चय नय या व्यवहार का छल ग्रहणीय नहीं है । यह कथन कि " निश्चय नय से तो होनहार ही होता है और फेरर-फार हो सकता है यह तो औपचारिक व्यवहार है अर्थात् कहा है पर " है नहीं" मूर्खता के प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं । 56 आ. ज्ञानसागरजी महाराज आगम तत्त्वों के गहन अध्येता थे । स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते अन्यों का भी हित सम्पादन उनका ध्येय था । मिथ्या नियतिवाद एवं चारित्र मोह के उपशमादि होने एवं उस स्थिति में स्वतः चारित्र प्राप्त करने की मिथ्या परिकल्पना के निरसन हेतु उन्होंने नयों के परिवेश में यथेष्ट व्याख्यान किया है । नियतिवाद की पुष्टि हेतु समयसारादि ग्रन्थों के वाक्यों के छल से अकाल मरण का निषेध भी कतिपय एकान्तिक दृष्टि से धारक करने लगे थे । आ. महाराज ने इस विषय में स्पष्टीकरण आवश्यक मानकर अपनी लेखनी का प्रयोग किया । यहाँ हम इस प्रकरण को अलग से प्रस्तुत करते हैं । 27. अकालमरण समयसार गाथा नं. 263 की टीका में विशेषार्थ कहते हुए आ. ज्ञानसागरजी महाराज उल्लिखित किया है " प्रत्येक प्राणी का जीवन उसकी आयु के ऊपर निर्भर है । यदि आयु निःशेष हो चुकी है तो वह कभी जीवित नहीं रह सकता और अभी शेष है तो वह किसी का मारा नहीं मर सकता क्योंकि कोई भी किसी की आयु को हड़प नहीं सकता । वह तो उपभोग के द्वारा ही समाप्त होगी। हाँ, उसका उपभोग दो प्रकार से होता है उदय से और उदीरणा से । उदय से आयु का उपभोग होना समुचित मरण है और उदीरणा होना उपभोग से अकालमरण कहलाता है परन्तु आयु का उपभोग होकर उसकी समाप्ति होना ही चाहिए तभी मरण होगा अन्यथा नहीं । रही निमित्त की बात सो निमित्त मिलने पर भी किसी की मृत्यु नहीं होती तो किसी की साधारण निमित्त से भी मृत्यु हो जाती है और किसी के बिना निमित्त के भी । जैसा की तलवार से मर्म की चोट लगने पर भी नहीं मरता तो कोई साधारण चाकू की चोट से ही मर जाता है । तथा मरने वाला बिना चोट खाये भी मर जाता है । अतः ऐसा अनियमित निमित्त को ज्ञानी महत्त्व नहीं देता हैं । शंका तो फिर आपके कहने में हम कुछ भी करते रहें भले ही आँख मींचकर चलें तो भी कोई दोष नहीं है । उत्तर - हे भाई, कुछ भी क्यों करते रहें । करना तो अज्ञान भाव है, बन्ध करनेवाला है । इसके स्थान पर यों कहो कि हम कुछ भी नहीं करें, निर्विकल्प समाधि में लगकर आत्मतल्लीन होकर नवीन बन्ध नहीं होने से ज्ञानी कहलाने के अधिकारी बने रहें उस अवस्था में चाहे कुछ भी हमारा क्या चारा है यदि कोई मरता है तो अपनी आयु की समाप्ति पर, और कोई जीवित है तो अपने आयु के बल पर, क्योंकि हमारा तो उधर उपयोग ही नहीं
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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