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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण है । परन्तु समाधि से च्युत होने पर यदि वहाँ विकल्प आवे तो उसे मारने का विकल्प न करके बचाने का विकल्प करना चाहिए जैसा कि बालि मुनि ने या विष्णुकुमार मुनि ने किया था ताकि कर्मबन्ध भी हो तो वह शुभ हो, अनन्त संसार के कारणभूत अशुभ कर्मबन्ध से बच जावें ।"
गाथा 274 का विशेषार्थ भी प्रयोजनीय है, "श्री जिन शासन में मुख्य दो नय हैं - एक निश्चय नय, दूसरा व्यवहार नय । निश्चय नय स्वावलम्बी है, स्वयं आत्म-निर्भर करता है और व्यवहार नय परावलम्बी है वाह्य अन्य पदार्थों के आश्रय पर टिकता है । व्यवहार नय जो कि मुख्यतया गृहस्थों द्वारा अपनाने योग्य है - कहता है कि जब किसी के द्वारा कोई जीव मारा या पीटा जाता है, वहाँ हिंसा होती है (अकालमरण भी संभव है) क्योंकि उसके भाव को कौन जानता है कि मारने का उसका भाव था या नहीं। किन्तु निश्चय नय जो कि मुख्यतया ऋषियों के द्वारा गाह्य है अपने अधिकारियों को कहता है कि जब तुमने सर्व बाह्य परिग्रह का त्याग ही कर दिया तो फिर बाह्य हिंसा करने की आवश्यकता भी क्या रह गई, कुछ भी नहीं । परन्तु हे भाई मन बड़ा ही चपल है, अच्छा विचार करतेकरते भी बुरे विचार पर आ जाता है अत: इसे सम्हाल कर रखो और दूसरों को मार डालने या दुःख देने आदि का भी विचार कभी मत आने दो । यदि इस प्रकार के विचार भी मन में आ गये तो तुम फिर हिंसा के दोष से बच नहीं सकते । फिर तुम एकान्त निश्चयाभास का अवलम्बन लेकर की कोई किसी को मार नहीं सकता या अकालमरण नहीं होता, यह कहकर कि "हमने किसी जीव को मारा तो है नहीं ऐसा कहने से हिंसा से छूट नहीं सकते हो ।"
निष्कर्ष - आ. महाराज के उक्त विवेचन के निम्न निष्कर्ष हैं -
1. अकालमरण का सद्भाव है आगम प्रमाण । "औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ।" तत्त्वार्थ सूत्र विसंवेयण रत्तक्खय भयसत्थग्गहणसंकिलेसेहिं ।
आहास्सासाणं णिरोहदो छिज्जदो आऊ ॥25॥-भावपाहुड इय तिरिय मणुयजम्मे सुझं उववजिऊण बहुवारं । अवमिच्चु महादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥27॥-भावपाहुड
- औपपादिक (देव-नारकी), चरमोत्तम देहवाले तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोग-भूमियाँ जीवों की आयु अनपवर्त्य होती है अर्थात् विष शास्त्रादिक बाह्य निमित्तों से नहीं छिदती, उनका अकालमरण नहीं होता, शेष का हो सकता है ।
- विष से, वेदना से, रक्त क्षय से, भय, शस्त्र प्रहार, संक्लेश, आहार के निरोध व श्वासोच्छवा के निरोध से (अन्य भी निमित्तों से) आयु छिद जाती है । उदीरणा को प्राप्त होकर घट जाती है।
__ - हे मित्र इस प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य जन्म में चिर-काल बहुत बार उत्पन्न होकर तुमने अकालमरण का महान दुःख पाया है ।