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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
55 ___ 1. पर्यायें क्रमवर्ती हैं. इसका तात्पर्य मात्र इतना है कि वे क्रम से होती हैं । एक समय में दो पर्यायें नहीं होती, किन्तु किस के बाद क्या क्रम है यह कारण-कलापों पर निर्भर है कोई क्रमबद्ध नहीं । बंधन तो अन्य द्रव्य के द्वारा किया जाता है अत: किसी ने क्रम में बाँधी है ऐसा नहीं है । परिवर्तन संभव है । पर्यायों के क्रम और अक्रम दोनों रूप स्वीकृत हैं, दृष्टव्य है - इत्याद्यनेकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽयं यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः । एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्त्तचित्रं तद्रव्यपर्यायमयं चिदिहास्तु वस्तु ।
- समयसार कलश, 264 इसमें स्पष्ट रूपसे क्रमाक्रमविवर्ति क्रम और अक्रम पर्याय का उल्लेख आ.अमृतचन्द्रजी ने किया है।
2. नियतिवाद (निश्चयैकान्त) के निरसन करते हुए उसे 363 प्रकार के मिथ्यात्वों में आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने परिगणित किया है ।। 'जत्तु जदा जेण जहाँ जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा । तेण तस्स तहा हवे इदि वादो णियदिवादो दु गो. क. 882॥
- जिसके द्वारा, जो, जब और जिसका होना है उसके द्वारा, वही, तभी और वह नियम से होता है, कोई फेर-फार नहीं, यह कथन नियतिवाद नायक मिथ्यात्व है ।
___ एकान्त नियतिवादी तो भ्रम से उल्टा उसे सम्यक्त्व मानकर पुरुषार्थहीन हो रहा है। यह तोआगम प्रमाण है। इसके अतिरिक्त ये नियतिवादी जिस टोडरमलजी रचित 'मोक्षमार्गप्रकाशक' को ही सर्वस्व मानकर चलते हैं उसमें भी स्पष्ट रूप से निम्न स्थल नियतिवाद का खण्डन करता है, अध्याय ९, प्रकरण 'पुरुषार्थ से ही मोक्षप्राप्ति ।'
"समाधान - एक कार्य होने में अनेक कारण मिलते हैं। सो मोक्ष का उपाय बनता है वहाँ तो प्रोक्त तीनों ही कारण मिलते हैं और नहीं बनता वहाँ तीनों ही कारण नहीं मिलते। पूर्वोक्त तीन कारण कहे उनमें काललब्धि व होनहार तो कोई वस्तु नहीं है । ........ सो जिनमत में जो मोक्ष का उपाय कहा है इससे मोक्ष होता ही होता है । (मात्र भगवान् के ज्ञान से या कथन से नहीं) । इसलिए जो जीव पुरुषार्थ से जिनेश्वर के उपदेशानुसार मोक्ष का उपाय करता है उसके काललब्धि व होनहार भी हुए और कर्म के उपशमादि हुए हैं तो वह ऐसा उपाय करता है । (कर्मसिद्धान्त में सभी परिवर्तन फेर-फार स्वीकृत हैं, उपशम, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, संक्रमण आदि) ..... जो पुरुषार्थ नहीं करते वे मोक्ष का उपाय नहीं कर सकते । उपदेश तो शिक्षामात्र है फल जैसा पुरुषार्थ करे वैसा लगता है ।"
इस प्रकार में आ. समन्तभद्र स्वामी का निम्नलिखित शाश्वत चिरन्तन अनेकान्तमय उल्लेख भी प्रस्तुतत्य है,
अबुद्धिपूर्वीपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्व्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥
- आप्तमीमांसा 910