________________
54
आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण कितना सटीक उदाहरण आ. श्री ने यहाँ प्रस्तुत किया है । व्यवहार के द्वारा यह प्रत्यक्ष सिद्ध वस्तुरूप को कौन नकार सकता है । क्रम के साथ अक्रम परिणमन भी आचार्यश्री ने सद्भाव रूप व्यक्त किया है । वह पुद्गल और जीवों में ही संभव । विवकोदय पृष्ठ 66
"शंका - जिस जीव को जिस देश में 'जिस काल में' जिस विधि से जो कुछ जन्म-मरण, सुख-दुःख, रोग-दारिद्रय इत्यादि जैसे सर्वज्ञ देव ने जाने हैं उसी प्रकार वे सब नियम से होंगे उसको कोई देव, दानव, इन्द्र या जिनेन्द्र भी और तरह का नहीं कर सकते ऐसा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है । (यहाँ गाथा नं. 321 व 322 दी गई है) और इसका मान लेना एक सम्यग्दृष्टि भले आदमी के लिए जरूरी है फिर प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता रह जाती है जो होगा सो तो होगा ही ।"
उत्तर - भैयाजी ऊपर की गाथाओं में लिखा है वह तो ठीक ही लिखा है । (यह ध्यान रहे कि यह अनुप्रेक्षा है सिद्धान्त नहीं) कि जो कुछ जैसा हो गया जैसा होगा और जैसा हो रहा है उसको सर्वज्ञ का ज्ञान जानता है । (मात्र जानता है होनहार का नियामक नहीं है) परन्तु कर्ता कौन ? क्या कर्ता भी सर्वज्ञ का ज्ञान ही है । अगर हाँ, तब तो फिर ईश्वर कर्तृत्ववादियों में क्या अपराध किया है, वे सब जो कहते हैं सो (भी) ठीक ही ठहरता है परन्तु कर्ता उसका वह है जिसका कि वह कार्य होता है सर्वज्ञ का ज्ञान तो सिर्फ उसे जानता है एवं कार्य करनेवाला अपने कार्य को किसी भी प्रकार की खराबी से बचा कर उसे वह अच्छी तरह से करना चाहता है यही उसकी कर्तव्यशीलता है । फिर भी होता वही है जैसा कि जहाँ समर्थ कारण-कलाप होता है । अतः जो कार्यकर्ता के ही भावना के अनुकूल होता चला जा रहा हो वह तो ठीक ही है किन्तु जहाँ पर कार्य और रूप में निष्पन्न होता प्रतीत होता है वही पर यह भावना पाई जाती है।
जो जो देखी वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे । और रूप नहिं होय सयाने काहे होत अधीरारे ॥अस्तु 1॥
अब साधारण तौर पर जीव दो तरह के होते हैं । एक दुनियादारी की ओर जानेवाला दूसरा परमार्थ की तरफ ढलनेवाला । उनमें से दुनियादारी का जीव परमार्थ के कार्य को नियति के भरोसे पर छोड़कर वैषयिक बातों पर डटा रहता है । एकान्त निश्चयाभासी है, किन्तु दूसरा इसके विपरीत सांसारिक कार्यों को नियति पर निर्भर मानकर आत्महित में तत्पर हो लेता है । जैसा कि स्वयं कानजी के वस्तु विज्ञानसागर में लिखा, (देखो पृष्ठ नं. 13) जो यह मानता है कि सम्यग्दर्शन और केवलज्ञान दशा आत्मा के पुरुषार्थ के बिना होती है वह मिथ्यादृष्टि है ।"
इस प्रसंग में आ. महाराज के समर्थन में कुछ आगमप्रमाण प्रस्तुत करने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ एतदर्थ एवं कतिपय प्रस्तुत हैं, जिनसे उक्त विषय का खुलासा होगा ।